Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 862
________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 785 406 केवली बूया-णिग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं 2 अणोग्गहणसीले अदिण्णं गिण्हेज्जा, निग्गंथे उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं 2 उग्गहणसीलए' सिय त्ति चउत्था भावणा। [5] अहावरा पंचमा भावणा-अणुवीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अणणुवीयि मितोग्गहजाई / केवली बूया-अणणुवीइ मितोम्गहजाई से निग्गथे साहम्मिएसु अदिण्णं ओगिण्हेज्जा / से अणुवीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अणणुवीयि मितोग्गहजाइ त्ति पंचमा भावणा। 785. एत्ताव' ताव [तच्चे] महन्वते सम्म जाव आणाए आराहिए यावि भवति / तच्च भंते ! महत्वयं [अदिण्णादाणातो वेरमण] / 783. "भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महाव्रत स्वीकार करता हूं, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। वह इस प्रकार-- वह (ग्राह्य पदार्थ) चाहे गाँव में हो, नगर में हो, अरण्य में हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल (छोटा हो या बड़ा), सचेतन हो या अचेतन; उसे उसके स्वामी के बिना दिये न तो स्वयं ग्रहण करूगा. न दूसरे से (बिना दिये पदार्थ) ग्रहण कराऊंगा, और न ही अदत्तग्रहण करनेवाले का अनुमोदन-समर्थन करूंगा, यावज्जीवन तक, तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीन योगों से यह प्रतिज्ञा करता हूँ। साथ ही मैं पूर्वकृत अदत्तादानरूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्मनिन्दा करता हूं, गुरु की साक्षी से उसकी 'गहीं' करता हूँ और अपनी आत्मा से अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता हूं। 784. उस तीसरे महाब्रत की ये 5 भावनाएँ हैं (1) उन पांचों में से प्रथम भावना इसप्रकार है--जो साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्गन्य है, किन्तु विना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करनेवाला नहीं। केवली भगवान् कहते हैं जो बिना विचार किये मितावग्रह की याचना करता है, वह निर्गन्थ अदत्त ग्रहण करता है / अतः तदनुरूप चिन्तन करके परिमित अवग्रह की याचना करनेवाला साधु निम्रन्थ कहलाता है, न कि बिना विचार किये मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला। इस प्रकार यह प्रथम भावना है। (2) इसके अनन्तर दूसरी भावना यह है--गुरुजनों की अनुज्ञा लेकर आहार-पानी आदि सेवन करनेवाला निग्रन्थ होता है, अनुज्ञा लिये बिना आहार-पानी आदि का उपभोग करने वाला नहीं / केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की अनुज्ञा प्राप्त किये 1. 'उग्गहणसीलए सियस्ति' के बदले पाठान्तर है—'उग्गहणसीलए यत्ति, उग्गणसीलए अस्ति, उग्गह सोलए सिस्ति / ' 2. 'एल्ताव ताव' महावते, के बदले पाठान्तर हैं----'एस्ताव महव्यते', एस्तावया महब्बते' 3. 'सम्म के बदले पाठान्तर है-'संजमं' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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