Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 866
________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 786-87 413 (4) अहावरा चउत्था भावणा-णातिमत्तपाण-भोयणभोई से निग्गंथे, णो पणोयरसभोयणभोइ / केवली बूया--अतिमत्तपाण-भोयणभोई से निग्गंथे पणीयरसभोयणभोइ त्ति संतिभेदा जाव भंसेज्जा / णातिमत्तपाण'-भोयणभोई से निग्गंथे, जो पणोतरस भोयणभोइ त्ति चउत्था भावणा। (5) अहावरा पंचमा भावणा—णो णिग्गंथे इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणा-ऽऽसणाई सेवित्तए सिया / केवली बूया--निगंथे णं इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणा-ऽऽसणाई सेवेमाणे संतिभेटा जाव भंसेज्जा। णो णिग्गंथे इत्थी-पस-पंडगसंसत्ताई सयणा-ऽऽसणाड सेवित्तए सिय त्ति पंचमा भावणा। 788. एत्ताव ताव महव्वए सम्म काएण जाव आराधिते यावि भवति / चउत्थं भंते ! महत्वयं (मेहुणातो वेरमणं)। 786. इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके सन्दर्भ में समस्त प्रकार के मैथुन-विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्च-सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूंगा, न दूसरे से एतत् सम्बन्धी मैथुनसेवन कराऊंगा, और न ही मैथुन सेवन करनेवाले का अनुमोदन करूंगा। शेष समस्त वर्णन अदत्तादान-विरमण महावत विषयक प्रकरण के–'आत्मा से अदत्तादान-पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ, तक के पाठ के अनुसार समझ लेना चाहिए। 787. उस चतुर्थ महाव्रत की ये पाँच भावनाएं हैं [1] उन पांचों भावनाओं में पहली भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की काम-जनक कथा (बातचीत) न कहे। केवली भगवान् कहते हैं बार-बार स्त्रियों की कथा कहनेवाला निर्ग्रन्थ साधु शान्तिरूप चारित्र का और शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करनेवाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / अतः निर्ग्रन्थ साधु को स्त्रियों की कथा बार-बार नहीं करनी चाहिए। यह प्रथम भावना है। [2] इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है निम्रन्थ साधु काम राग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को सामान्य रूप से या विशेष रूप से न देखे / केवली भगवान् कहते हैं—स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को कामराग-पूर्वक सामान्य या विशेष रूप से अवलोकन करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का कामरागपूर्वक सामान्य अथवा विशेष रूप से अवलोकन नहीं करना चाहिए / यह दूसरी भावना है। 1. 'णातिमत्तपाण...' के बदले पाठान्तर है, .-'णो अतिमत्तपाण...' जो अतिमत्तपाणभोयणभोती। 2. सेवेमाणे के बदले पाठान्तर है-सेवमाणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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