Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 766 361 'वियत्ताए' आदि पदों का अर्थ-विवत्ताए-द्वितीय / साडम' -शाटक-देवदूष्य वस्त्र / पाईणगामिणोए पूर्वगामिनी। ईसिस्तणिप्पमाणं =थोड़े-से बद्धमुष्टिहाथ (रत्नि) प्रमाण। अच्छोप्पेणं =अस्पृष्ट (ऊंची) रखकर / णिसीदति =बैठ जाते है। आमुयति = उतारते हैं। जन्नुपायडिते-घुटने टेक कर चरणों में गिरा। पडिच्छतिः-: ग्रहण कर लेता है। वइरामएण थालेणं वज्रमय थाल में / साहरति =डाल या बहा देता है। आलेक्वचित्तभू तमिव ठवेति = आलिखित चित्र की-तरह स्तब्ध रह गई। णिलुक्को तिरोहित हो गया, स्थगित हो गया। अहोणिसं . अहर्निश: दिन रात।' मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि और अभिग्रह-ग्रहण 766. तत्तो णं समणस्स भगवतो महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्त पडिवन्नस्स मणपज्जवणाणे णामं णाणे समुप्पण्णे / अड्ढाइज्जेहिं दोवेहि दोहि व समुद्दे हिं सण्णोणं पंचेंदियाणं पज्जताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाई जाणइ / जाणिता ततो णं समणे भगवं महावीरे पब्वइते समाणे मित-जाती-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति / पडिविसज्जित्ता इमं एतारूवं अभिग्गहं अभिगिहति-“बारस वासाई वोसट्ठकाए चतदेहे जे केति उवसग्गा समुप्पज्जति', तंजहा दिव्वा वा माणुसा वा तेरिच्छिया बा, ते सम्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे सम्म सहिस्सामि, खनिस्सामि, अधिपास इस्सामि / 766. तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान नामक ज्ञान समुत्पन्न हुआ; जिसके द्वारा वे अढाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपञ्चेन्द्रिय, व्यक्तमन वाले जीवों के मनोगत भावोंको स्पष्ट(प्रत्यक्ष) जानने लगे। इधर मनःपर्याय ज्ञान से मनोगत भावों को जानने लगे थे. उधर श्रमण भगवान् महावीर ने प्रबजित होते हो अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन-सम्बन्धिवर्ग को प्रतिविजित (विदा) किया। विदा करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया कि 'मैं आज से बारह वर्ष तक अपने शरीर का व्युत्सर्ग करता हूँ-देह के प्रति ममत्व का त्याग करता हूं।' इस अवधि में 1. (क) पाइअ-सहमहण्णवो पृ० 887, 706, 408 / (ख) अर्थागम खण्ड-१ (आचारांग) पृ० 157 / 2. 'अड्ढा इज्जेहि' के बदले पाठान्तर है-अड्ढाइएहि, अतिज्जेहि / 3. 'सण्णीण पंचेंदियाणं' के बदले पाठान्तर है-- 'सण्णीपंचेंदियाणं' / 4. 'जाणित्ता' के बदले 'जाणेत्ता' पाठान्तर है। 5. 'वोसटुकाए' के बदले पाठान्तर है—वोसट्ठकाए, वोसट्ठकाते / 'केति' के बदले पाठान्तर है.---'केवि। 7. 'समुप्पजनि' के बदले पाठान्तर हैं ---समुप्पज्जसु, समुप्पज्जेिस्सति / समुप्पज्जति दिव्या।' 8. 'तेरिच्छिया म' के तेरिच्छा वा' पाठान्तर है। अर्थ समान हैं। 8. 'अधियासइस्सामि' के बदले पाठान्तर है---अहियास इस्सामि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org