Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 770-71 हायतोबा नहीं मचाऊंगा, न ही निमित्तों को कोसँगा, न रोऊगा-चिल्लाऊंगा या किसी के सामने गिड़गिड़ाऊंगा, न विलाप करूंगा, न आत्त ध्ययन करूगा / बल्कि उसे अपने ही कृतकर्मों का फल मानकर उसे सम्यक् प्रकार से या समभावपूर्वक सहन कर लूँगा।" खमिस्सामि का अर्थ है- जो कोई भी मुझ पर उपसर्ग करने आएगा, उसके प्रति क्षमाभाव रखूगा, न तो किसी प्रकार द्वेष या वैर रखूगा, न ही द्वेषवश बदला लेने का प्रयत्न या संकल्प करूंगा, न कष्ट देने वाले को मारूगा-पीटूंगा या उसे हानि, पहुँचाने का प्रयत्न करूंगा। उसे क्षमा कर दूंगा। अथवा उसे तपश्चरण समझ कर कर्म-क्षय करूंगा / अथवा उपसर्ग सहने में समर्थ बनगा। 'अधियास इस्सामि' का अर्थ होता है शान्ति से, धैर्य से झेलूंगा। खेद-रहित होकर सहूंगा।' भगवान का विहार एवं उपसर्ग 770. ततो गं समणे भगवं महावीरे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हिता वोसट्ठकाए चत्तदेहे दिवसे मुहत्तसेसे कम्मारगाम समणुपत्त / ततो णं समणे भगवं महावीरे वोसट्ठकाए चत्तवेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं, एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतोए मुत्तीए तुट्ठीए समितीए गुत्तोए ठाणेणं कम्मेणं सुचरितफलणेन्वाणमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। 5771. एवं चात विहरमाणस्स जे केइ उवसम्गा समुप्पज्जति-दिव्वा वा माणुस्सा वा तरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाइले अव्वहित अद्दोणमाणसे तिविहमण-वयण-कायगुत्त सम्मं सहति खमति तितिक्खति अहियासेति / 1 (क) 'पाइअसहमहण्णवो 885, 27, 8 (ख) आयारो (प्रथम श्रुत) 6 / 2 / 13-16 (ग) अर्थागम भा०१ (आचारांग) पृ०१५७-१५८ 2. 'इमंयएतारूबं' के बदले पाठान्तर हैं--'इमेयारूवं, इमेयारूवे / 3. 'वोसठुकाए चत्तदेहे' के बदले पाठान्तर है--'वोसठ्ठचत्तदेहे / ' 4. 'कम्मारगाम समणुपत्ते' के बदले पाठान्तर है--'कम्मारं गाम समणुपत्ते' 'कुमारगामं समशुपत्ते दोसठ्ठकाए / ' 5. भगवान् महावीर स्वामी के विशेषणों और उपमाओं वाला विस्तृत पाठ यहाँ सूत्र 770 में होना चाहिए था क्योंकि स्थानांगसुत्रह एवं जम्बू-द्वीपप्रजस्ति (वक्षस्कार (0) ऋषभदेव वर्णन) में विस्तार से 'जहाँ भावणार' इस प्रकार आचारांग सुत्र भावनाऽऽध्ययन के अन्तर्गत जो पाठ है, उसका निर्देश किया गया है, परन्तु वह वर्तमान में इस भावनाऽध्ययन में उपलब्ध नहीं है। यह विचारणीय है। 6. 'एवं चाते' के बदले पाठान्तर हैं—‘एवं गत विहरमाणस्स,' 'एवं विहरमाणस्स' ‘एवं वा विहर माणस्स / ' अर्थात- इस प्रकार का अभिग्रह धारण करके विहार करते हुए""1 7. 'समुपज्जति' के बदले पाठान्तर हैं—'समुपजिति,' 'समुप्पज्जंसू' समुप्पज्जति, समुत्तिसु।' अर्थ प्रायः समान-सा है। 8. 'अणाइले' के बदले पाठान्तर है--'अणाउले'–अर्थ होता है-अनाकुल। 6. कुछ प्रतियों में 'सहति' के बाद ही तितिक्खति' पाठ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org