Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भगवान की धर्म देशना 775. ततो गं' समणे भगवं महावीरे उप्पन्नणाणदंसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमिक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खती, ततो पच्छा माणुसाणं / 775. तदनन्तर अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने केवलज्ञान द्वारा अपनी आत्मा और लोक को सम्यक्प्रकार से जानकर पहले देवों को, तत्पश्चान् मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया। विवेचन... भगवान् द्वारा धर्माख्यान-प्रस्तुत सूत्र में तीन बातों का विशेषतः उल्लेख किया है-(१-२) केवलज्ञान-केवलदर्शन होने के पश्चात् स्वयं लोक को जानकर भगवान् ने धर्मोपदेश दिया है, (3) पहले देवों और फिर मनुष्यों को धर्म व्याख्यान दिया। (2) अभिसमिक्ख =जानकर, धम्ममाइक्खंती-धर्म का आख्यान-कथन-उपदेश किया। पंचमहाव्रत एवं षड्जीव निकाय की प्ररुपणा 776. ततो णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्नणाणसणधरे गोतमादोणं समणाणं णिग्गथाणं पंच महब्बयाई सभावणाई छज्जीवणिकायाई आइक्खति भासति परवेति, तंजहा-पुढवीकाए जाव तसकाए। 776. तत्पश्चात् केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को (लक्ष्य करके) भावना सहित पंच-महाव्रतों और पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक-षड्जीवनिकायों के स्वरूप का व्याख्यान किया। सामान्य-विशेष रूप से प्ररूपण किया। विवेचन-भावना सहित पंचमहाव्रत एवं षड्जीवनिकाय का उपदेश-प्रस्तुत सूत्र में तीन बातों का मुख्यतया उल्लेख किया गया है--(१) भ० महावीर द्वारा किनको लक्ष्य करके उपदेश दिया गया ? अर्थात्-श्रोता कौन थे? (2) उनके धर्माख्यान के विषय क्या-क्या थे? (3) उपदेश की शैली तथा क्रम क्या था ? 1. 'ततो पच्छा माणसाणं' के बदले पाठान्तर है तो पच्छा मणुसाण / 2. आचा० मू० पा० टि० पू० 278 / 3. आचा. चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 278 / 4. महब्वयाई सभावणाई छज्जीवणिकायाई के बदले पाठान्तर है ---महत्वयाई छज्जीवणिकायाई सभावणाई। 4. (क) आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 278 / (ख) तुलना कीजिए --'तएणं से भगवं तेण अत्तरेणं केवलवरणाणं दसणेणं सदेवमणुआसुरलोग अभिसमिच्चा समणाणं णिश्राण पंचमहब्वयाई सभावणाई छज्जीवनिकाए धम्म देसमा विहरिस्सइ / " -स्थानांग सूत्र स्था०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org