Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 836
________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 754 383 रुरु-सरभ-चमर-सदूल-सोह-वणलयचित्तविज्जाहर-मिहणजुगलजंतजोगजुत्त' अच्चीसहस्स मालिणीयं सुणिरूवितमिसमिसेतरूवमसहस्सकलित' भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुल्लो यणलेस्स मुत्ताहडमुत्तजालंतरोयित तवणीयपवरलंबूस-पलबंमुत्तदाम हारहारभूसणसमो णत अधियपेच्छणिज्जं पउमलयभत्तिचित्त असोगलय-भत्तिचित्त कुंदलयभत्तिचित्त णाणालयभत्तिविरइयं सुभ' चारुकंतरूवं णाणामणिपंचवण्ण-घण्टापडायपरिमंडितग्गसिहरं सुभं चारुकंतरूवं पासादोयं दरिसणीयं सुरुवं / 754. तत्पश्चात् देवों के इन्द्र देवराज शक्र ने शन:-शनैः अपने धान विमान को वहाँ ठहराया। फिर वह धीरे-धीरे विमान में उतरा। विमान में उतरते ही देवेन्द्र सीधा एक ओर एकान्त में चला गया। वहां जाकर उसने एक महान् वैक्रिय समुद्धात किया / उक्त महान् वैक्रिय समुद्घात करके इन्द्र ने अनेक मणि-स्वर्ण-रत्न आदि मे जटित-चित्रित, शुभ, सुन्दर मनोहर कमनीय रूप वाले एक बहुत बड़े देवच्छंदक (जिनेन्द्र भगवान के लिए विशिष्ट स्थान) का विक्रिया द्वारा निर्माण किया / उस देवच्छंदक के ठीक मध्य-भाग में पादपीठ सहित एक विशाल सिंहासन की विक्रिया की, जो नाना मणि-स्वर्ण-रत्न आदि की रचना से चित्र-विचित्र, शुभ, सुन्दर और रम्य रूपवाला था। उस भव्य सिंहासन का निर्माण करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वह आया। आते ही उसने भगवान् की तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, फिर उन्हें वन्दन-नमस्कार करके श्रमण भगवान महावीर को लेकर वह देवच्छन्दक के पास आया। तत्पश्चात् भगवान् को धीरे-धीरे उस देवच्छन्दक में स्थित सिंहासन पर बिठाया और उनका मुख पूर्व दिशा की ओर रखा। यह सब करने के बाद इन्द्र ने भगवान् के शरीर पर शतपाक, सहस्र-पाक तेलों य मालिश की, तत्पश्चात् सुगन्धित काषाय द्रव्यों से उनके शरीर पर उबटन किया फिर शतपाक, सहस्रपाक तेलों के साथ उबटन करके शुद्ध स्वच्छ जल से भगवान् को स्नान कराया / स्नान कराने के बाद उनके शरीर पर एक लाख के मूल्य वाले तीन पट को लपेट कर साधे हुए सरस गोशीर्ष रक्त चन्दन का लेपन किया। फिर भगवान् को नाक से निकलने वाली जरा-सी श्वास 1. 'जंतजोगजस्तं' के पाठान्तर है --'जंतजोगचित्तं'। 2. 'असहस्सकलित' के बदले पाठान्तर है--'असहस्सकलिगं / ' अर्थात् --उस पर हजार से कम चिन्ह बनाये हुए थे। 3. 'भिसमाण के बदले पाठान्तर हैं---'ईसिभिसमाणं', 'भिसमीणं'। अर्थ होता है-थोड़ा-सा चमकता हुआ। 4. 'चक्खल्लोयणलेस्सं' के बदले 'चखलोयणलेस्स, चक्खुल्लेयणलिस्सं / 5. 'रोयितं' के बदले रोइयं' 'रोयियं पाठान्तर हैं। 6. 'लंबूमपलंबत' के बदले पाठान्तर हैं-लंबूसतो लंबतं,--लंबूसए संबंतं / 7. 'भित्तिचित्तं' के बदले पाठान्तर है --भित्तचित्तं / ..-- भींत पर चित्रित / 8. सुभ चारुकंतरूवं' के बदले पाठान्तर है-'सभकंतचारुकंतरूवं', सभ'चारू चारू। किसी-किसी प्रति में दूसरी बार आया हुआ 'सुभ चारुकंतरूव' पाठ नहीं है। यहाँ दो बार इन शब्दों का प्रयोग क्रमश:--'अग्रशिखर का और 'शिविका' का विशेषण बताने के लिए किया गया लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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