Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 242 आचारांग सूत्र-द्वितीय भु तस्कन्ध (10) चमड़े के बस्त्र घृणाजनक, अपवित्र और अमंगल होने से इनका उपयोग साधुओं के लिए उचित एवं शोभास्पद नहीं / 'महामूल्य' किसे कहते हैं इस विषय में अभयदेवसूरि ने बताया है- 'पाटली पुत्र के सिक्के से जिसका मूल्य अठारह मुद्रा (सिक्का-रुपया) से लेकर एक लाख मुद्रा (रुपया) तक हो वह महामूल्य वस्त्र होता है।' अण्णतराणि वा तहप्पमाराई-बहुमूल्य एवं चर्म-निर्मित वस्त्रों के ये कतिपय नाम शास्त्रकार ने गिनाए हैं। इनके अतिरिक्त प्रत्येक युग में जो भी बहुमूल्य, सूक्ष्म, चर्म एवं रोमों से निर्मित, दुर्लभ तथा महाआरम्भ से निष्पन्न होने वाले वस्त्र प्रतीत हों, उन्हें साधु ग्रहण न करे सूत्रकार का यह आशय है। ___'माइणगाणि' आदि पदों के विशेष अर्थ-आचारांगचूर्णि, निशीथचूणि आदि में इन पदों के विशिष्ट अर्थ दिये गए हैं / आइणगाणि =अजिन-चर्म में निर्मित / आयाणि - तोसलिदेश में अत्यन्त शर्दी पड़ने पर बकरियों के खुरों में सेवाल जैसी मस्तु लग जाती है, उसे उखाड़कर उससे बनाये जाने वाले वस्त्र। कायाणि = काक देश में कौए की जांध की मणि जिस तालाब में पड़ जाती है, उस मणि की जैसी प्रभा होती है, वैसी ही वस्त्र की हो जाती है, उन काकमणि रंजित वस्त्रों को काकवस्त्र कहते हैं / खोमियाणि = क्षोम कहते हैं पौंड-पुष्पमय वस्त्र को, अथवा जैसे वट वृक्ष से शाखाएँ निकलती हैं, वैसे ही वृक्षों से लंबे-लंबे रेशे निकलते हैं, उनसे बने हुए वस्त्र दुगुल्लाणि = दुकूल एक वृक्ष का नाम है, उसकी छाल लेकर ऊखल में कूटी जाती है, जब वह भुस्से जैसी हो जाती है तब उसे पानी में भिगोकर रेसे बनाकर वस्त्र निर्माण किया जाता है / पट्टाणि == तिरीड़ वृक्ष की छाल के तन्तु पट्टसदृश होते हैं उनसे निर्मितवस्त्र तिरीड़पट्ट वस्त्र अथवा रेशम के कीड़ों के मुह से निकलने वाले तारों से बने वस्त्र। मलयाणि = मलयदेश (मैसूर आदि) में चन्दन के पत्तों को सडाया जाता है, फिर उनके रेशों से बने वस्त्र, पत्त ण्णाणि-वल्कल से बने हुए बारीक वस्त्र' देसरागा=जिस देश में रंगने की जो विधि है, उस देश में रंगे हुए वस्त्र, गज्जलाणि = जिनके पहनने पर विद्युत्गर्जन-सा कड़कड़ शब्द होता है, वे गर्जल वस्त्र / कणगो- सोने को पिघला कर उससे सूत रंगा जाता है, और वस्त्र बनाये जाते हैं। कणगकताणि = जिनके सोने की किनारी हो, ऐसे वस्त्र। विवग्धाणि = चीते का चमड़ा। कौतप आदि के ग्रहण का निषेध क्यों ? कौतप, कंबल (फारस देश के बने गलीचे) तथा 1. (क) स्थानांग वृत्ति, पत्र 322 (ख) विनयपिटक (महावग्ग) 8181210 26- में शिविदेश में बने 'सिवेय्यकवस्त्र' का उल्लेख है, जो एक लाख मुद्रा में मिलता था। 2. अनुयोगद्वार सूत्र (37) की टीका के अनुसार-किसी जंगल में संचित किये हुए मांस के चारों ओर एकत्रित कीड़ों से 'पट्ट' वस्त्र बनाये जाते थे / 3. 'पत्रोर्ण' का उल्लेख महाभारत 2178154 में भी है। -जैन सा० मा० 10 207 / 4. (क) आचारांग चूणि मू० पा० दि० पृ० 203,203 (ख) निशीथ चूणि उ. 7 पृ० 366,400 (ग) पाइअ-सद्द महण्णवो (घ) आचारांग वृत्ति पत्रांक 364 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org