Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 575-76 577. से भिक्खू वा 2 अभिकंखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं कुलियंसि' वा भित्तिसि वा सिलसि वा लेलुंसी वा अण्णतरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाते जाव णो आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा / 578. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णतरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाते जाव णो आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा / 576. से तमादाए एगंतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता] अहे झामथंडिल्लंसि वा जाव अण्णतरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लसि पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 ततो संजयामेव वत्थं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा। 575. संयमशील साधु या साध्वी वस्त्र को धूप में कम या अधिक सुखाना चाहे तो वह वैसे वस्त्र को सचित्त पृथ्वी पर, स्निग्ध पृथ्वी पर, तथा ऊपर से सचित्त मिट्टी गिरती हो, ऐसी पृथ्वी पर सचित्त शिला पर सचित्त मिट्टी के ढेले पर, जिस में घुन या दीमक का निवास हो ऐसी जीवाधिष्ठित लकड़ी पर, प्राणी, अंडे, बीज, मकड़ी के जाले आदि जीव-जन्तु हों, ऐसे स्थान में थोड़ा अथवा अधिक न सुखाए / 576. संयमशील साधु या साध्वी बस्त्र को धूप में कम या अधिक सुखाना चाहे तो वह उसप्रकार के वस्त्र को ठूठ पर, दरवाजे की देहली पर, ऊखल पर स्नान करने की चौकी पर, इस प्रकार के और भी अन्तरिक्ष-भूमि से ऊंचे स्थान पर जो भलीभाँति बंधा हुआ नहीं है, ठीक तरह से भूमि पर गाड़ा हुआ या रखा हुआ नहीं है, निश्चल नहीं है, हवा से इधर-उधर चलविचल हो रहा है, (वहां, वस्त्र को) आताप या प्रताप न दे (न सुखाए)। 577. साधु या साध्वी यदि वस्त्र को धूप में थोड़ा या बहुत सुखाना चाहते हों तो घर की दीवार पर, नदी के तट पर, शिला पर, रोड़े-पत्थर पर, या अन्य किसी उसप्रकार के 1. (क) 'कुलियं' आदि पदों का अर्थ चूर्णिकार के अनुसार-'कलियं-कूडो दिग्धो लिसो घरे जि दिग्घातो कुडडा / जे अंतिमपच्छिमा ताओ भित्तीओ। सिला-सिला एव / लेल लेटठओ।' अर्थात्-कूलियं का अर्थ लम्बी पतली-सी दीवार, घर में जो लम्बी दीवार होती है, वह कुलिक या कुड्या कहलाती है। जो अन्तिम या पीछे की दीवारें होती हैं, वे भित्तियाँ या भीतें कहलानी हैं / सिला-शिला, चदान / लेल - पत्थर के टुकड़े, रोड़े। (ख) निशीथ चूणि (उ०१३ 10 376 में एवं भाष्य गा० 4273) में बताया है-कुलियं कुडं तं जतो ब्वमवतरति / इयरा सह करभएप भित्ती, नईणं वा तडी भित्ती ।'-कुलियं कहते हैं, ऐसी कुड्या (दीवार) को, जिससे उतरा न जा सके। दूसरी भित्ति होती है, जो कर के भय (कर-भीति) से बनाई जाती है, इसलिए उमे भित्ती कहते है, अथवा नदी का तट भी भित्ती कहलाता है। 2. 'जाव' शब्द से यहाँ 'अंतलिक्खजाते' से 'णो आतावेज्ज' तक का पाठ सू० 576 के अनुसार है। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'झामयंडिल्लंसि वा' से 'अण्णतरेंसि तक का पाठ स० 328 के अनसार समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org