Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 284 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्व-याचित पीठ, फलक, शय्या-संस्तारक आदि में में लेने की मनुहार करे, पर-याचित पीठादि में से अथवा रुग्णादि के लिए याचित में से नहीं। (4) गृहस्थ के घर से स्वयाचित सूई, कैंची, कानकुरेदनी, नहरनी आदि चीजें लाया हो तो उन चीजों को स्वयं जाकर उस गृहस्थ को विधिपूर्वक सोपे, अन्य किसी को नहीं। तात्पर्य इन चारों सूत्रों में स्थान, आहार, पीठ-फलकादि या सूई, कैंची आदि, जितनी भी वस्तुओं का साधु उपयोग या उपभोग करता है, उनके स्वामी या अधिकारी से अनुज्ञापूर्वक ग्रहण (अवग्रह) की विधि से उन सबकी याचना करना आवश्यक बताया है, और स्वयाचित वस्तुओं में से ही यथायोग्य सार्मिकों को मनुहार करके दिया जा सकता है। प्रातिहारिक रूप से स्वयाचित वस्तु (सूई आदि) को स्वयं जाकर वापस सोंपने की विधि बताई है। इन विधानों के पीछे कारण ये हैं---बिना अवग्रहयाचना किये ही किसी के स्थान का उपयोग करने से उस स्थान का स्वामी या अधिकारी ऋद्ध होगा, अपमानित करेगा, साधु को अदत्तादान दोष भी लगेगा / परयाचित या परार्थ-दूसरे किसी साधु के लिए याचित वस्तु को लेने की किसी साधर्मी साधु को मनुहार करने से उस साधु को बुरा लग सकता है, वह रुग्ण हो तो उसके अन्तराय लग सकता है। तथा प्रातिहारिकरूप से स्वयाचित वस्तुएँ दूसरे साधु को सौंप देने से वह वापस लौटाना भूल जाए या उससे वह चीज खो जाए तो दाता को साधुओं के प्रति अश्रद्धा पैदा हो जाएगी, वचन-भंग होगा, असत्य का दोष लगेगा। साधर्मिक, साम्भोगिक और समनोज में अन्तर-एक धर्म, एक देव और प्रायः एक सरीख वेश वाले सार्मिक साधु कहलाते हैं / साम्भोगिक वे कहलाते हैं, जिनके आचार-विचार और समाचारी एक हों, और समनोज्ञ वे होते है, जो उद्युक्त विहारी-आचार-विचार में अशिथिल हों / इसका समनुज्ञ रूपान्तर भी होता है, जिसका अर्थ होता है एक आचार्य या एक गुरु की अनुज्ञा मे विचरण करने वाले। शास्त्रीय विधान के अनुसार जो साधार्मिक होते हुए साम्भोगिक (बारह प्रकार के परस्पर सहोपभोग व्यवहारबाले) और समनोज्ञ साधु होते हैं, उनके साथ आहारादि या वन्दन व्यवहारादि का लेन-देन होता है, किन्तु अन्य साम्भोगिक के साथ शयनीय उपकरणों आदि का लेन-देन खला होता है। इसी अन्तर को स्पष्ट करने हेतु शास्त्रकार ने ये तीन विशेषण प्रयुक्त किये हैं। अवग्रह-वजित स्थान 612. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा अणंतरहिताए पुढवीए ससणिद्वाए पुढवीए' जाव संताणए, तहप्पगारं उग्गहं णो ओगिण्हेज्ज वा 2 / 1. यहाँ 'जाब' शब्द से 'पुढवीए' से संताणए तक का पाठ सूत्र-३५३ के अनुसार समझें। 2. 'णो ओगिण्हेज्ज वा' के बदले पाठान्तर है-'णो गिण्हेज्ज'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org