Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध 638. इन पूर्वोक्त तथा वक्ष्यमाण कर्मोपादानरूप दोष स्थानों को छोड़कर साधु इन (आगे कही जाने वाली) चार प्रतिमाओं का आश्रय लेकर किसी स्थान में ठहरने की इच्छा करे। [1] इन चारों में से प्रथम प्रतिमा का स्वरूप इस प्रकार है-मैं अपने कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में निवास करूगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर में सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने-फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूंगा, तथा वहीं (मर्यादित भूमि में ही) थोड़ा-सा सविचार पैर आदि से विचरण करूगा / यह पहली प्रतिमा हुई। [2] इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा का रूप इस प्रकार है-मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूँगा और अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूंगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने-फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूंगा; किन्तु पैर आदि से मर्यादित भूमि में थोड़ा-सा भी विचरण नहीं करूगा। [3] इसके अनन्तर तृतीय प्रतिमा में कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहंगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूंगा, किन्तु हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण एवं पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण नहीं करूंगा। [4] इसके बाद चौथी प्रतिमा यों है --मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्तस्थान में स्थित रहंगा / उस समय न तो शरीर से दीवार आदि का सहारा लूगा, न हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण करूंगा, और न ही पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण करूंगा। मैं कायोत्सर्ग पूर्ण होने तक अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करता हूँ। केश, दाढ़ी, मुंछ, रोम और नख आदि के प्रति भी ममत्व-विसर्जन करता हूं। और कायोत्सर्ग द्वारा सम्यक् प्रकार से काया का निरोध करके इस स्थान में स्थित रहूंगा। 636. साधु इन (पूर्वोक्त) चार प्रतिमाओं से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण करके विचरण करे। परन्तु प्रतिमा ग्रहण न करने वाले अन्य मुनि की निन्दा न करे, न अपनी उत्कृष्टता की डींग हांके / इस प्रकार की कोई भी बात न कहे। विवेचन-स्थान सम्बन्धी चार प्रतिज्ञाएँ-प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए स्थान में स्थित होने पर स्वेच्छा से ग्राह्य 4 प्रतिज्ञाएं (अभिग्रह विशेष) बताई गई है। वे चार प्रतिज्ञाएं संक्षेप में ये हैं (1) अचित्त स्थानोपाश्रया, (2) अचित्तावलम्बना, (3) हस्तपादादि परिक्रमणा, (4) स्तोक पादविहरणा। प्रथम में ये चारों ही होती है, फिर उत्तरोत्तर एक-एक अन्तिम कम होती जाती है। इन चारों की व्याख्या चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार है (1) प्रथम प्रतिमा का स्वरूप-चार प्रकार से कायोत्सर्ग में स्थित हो--अचित्त (स्थान) का (कायोत्सर्ग में) आश्रय लेकर रहता है, दीवार, खभ आदि अचित्त वस्तुओं का पीठ से, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org