Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ रूप सप्तक : द्वादश अध्ययन प्राथमिक 27 आचारांग सूत्र (द्वि० श्रुत०) के बारहवें अध्ययन का नाम 'रूप-सप्तक' है। - चक्षुरिन्द्रिय का कार्य रूप देखना है। संसार में अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय, इष्ट-अनिष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप हैं, दृश्य है, दिखाई देनेवाले पदार्थ हैं। ये सब यथाप्रसंग आँखों से दिखाई देते हैं, परन्तु इन दृश्यमान पदार्थों का रूप देखकर साधु साध्वी को अपना आपा नहीं खोना चाहिए / न मनोज्ञ रूप पर आसक्ति, मोह, राग, गृद्धि, मूर्छा उत्पन्न होना चाहिए। और न ही अमनोज्ञ रूप देखकर उनके प्रति द्वेष, घृणा, अरुचि करना चाहिए। अनायास ही कोई दृश्य या रूप दृष्टिगोचर हो जाए तो उसके साथ मन को नहीं जोड़ना चाहिए / समभाव रखना चाहिए, किन्तु उन रूपों को देखने की कामना, लालसा, उत्कण्ठा, उत्सुकता या इच्छा से कहीं जाना नहीं चाहिए।' 4 राग और द्वेष दोनों ही कर्मबन्धन के कारण हैं, किन्तु राग का त्याग करना अत्यन्त कठिन होने से शास्त्रकार ने राग-त्याग पर जोर दिया है / इसी कारण 'शब्द सप्तक' अध्ययनवत इस अध्ययन में भी किसी मनोज्ञ, प्रिय, कान्त, मनोहर रूप के प्रति मन में इच्छा, मूर्छा, लालसा, आसक्ति, राग, गृद्धि या मोह से बचने का निर्देश किया है। अतएव इसका नाम 'रूप सप्तक' रखा गया है / रूप के यद्यपि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, ये चार निक्षेप बताए गए हैं, किन्तु नाम और स्थापना निक्षेप सुबोध होने से उन्हें छोड कर यहाँ द्रव्यरूप और भावरूप का निरूपण किया है। द्रव्य रूप नो आगमत: परिमण्डल आदि पाँच संस्थान हैं, और भाव रूप दो प्रकार है-१. वर्णतः, 2. स्वभावतः / वर्णतः काला आदि पांचों रंग है / स्वभावतः रूप है ...अन्तरंग क्रोधादि वश भौंहें तानना, आँखें चढ़ाना, नेत्र लाल होना, शरीर कांपना, कठोर बोलना आदि / र रूप सप्तक अध्ययन में कुछ दृश्यमान वस्तुओं के रूपों को गिना कर अन्त में यह निर्देश कर दिया है कि जैसे शब्द सप्तक में वाद्य को छोड़कर शेष सभी सूत्रों का वर्णन है, तदनुसार, इस रूप सप्तक में भी वर्णन समझना चाहिए। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 414 (ख) आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २४०-से भिक्खू वा 2 जहोवगयाई रुवाई, ण सक्का चक्खु विसयमागयं ण दट्ठ, जं तणिमित्तं गमणं तं वज्जेयव्वं / / 2. (क) आचा० वृत्ति पत्रांक 414 (ख) आचा० नियुक्ति गा० 220 3. "एवं नेयव्वं जहा सहपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडिमा वि।--आचा० मू० पा० पृ०-२८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org