Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 202 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध शरीर से उनके शरीर का (अविधिपूर्वक) स्पर्श न करे / उनकी आशातना न करता हुआ साधु ईर्यासमिति पूर्वक उनके साथ ग्रामानग्राम विहार करे। 506. रत्नाधिक साधुओं के साथ ग्रामानुग्राम विहार करने वाले साधु को मार्ग में यदि सामने से आते हुए कुछ प्रातिपथिक (यात्री) मिलें और वे यों पूछे कि "आयुष्मन श्रमण ! आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? और कहां जाएंगे?" (ऐसा पूछने पर) जो उन साधुओं में सबसे रत्नाधिक (दीक्षा में बड़ा) है, वे उनको सामान्य या विशेष रूप से उत्तर देंगे। जब रत्नाधिक सामान्य या विशेष रूप से उन्हें उत्तर दे रहे हों, तब वह साधु बीच में न बोले / किन्तु मौन रहकर ईर्यासमिति का ध्यान रखता हुआ उनके साथ ग्रामानुग्राम विहार करे। विवेचन-दीक्षा-ज्येष्ठ साधुओं के साथ विहार करने में संयम--साधु-जीवन विनय-मूल धर्म से ओतप्रोत होना चाहिए। इसलिए आचार्य, उपाध्याय या रत्नाधिक साधु के साथ विहार करते समय उनकी किसी भी प्रकार से अविनय-आशातना, अभक्ति, आदि न हो, व्यवहार में उनका सम्मान व आदर रहें इसका ध्यान रखना आवश्यक है। यही बात इन चार सूत्रों में स्पष्ट व्यक्त की गई है।' हिंसा-जनक प्रश्नों में मौन एवं भाषा-विवेक 510. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया आगच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा--आउसंतो समणा ! अवियाई एत्तो पडिपहे' पासह मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसु वा पक्ति वा सरीसवं वा जलचरं वा, से तं मे आइपसह, सेह / तं णो आइक्खेज्जा, णो दंसेज्जा, जो तस्स तं परिजाणेज्जा, तुसिणीए उवेहेज्जा, जाणं वा जो जाणं ति वदेज्जा / ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 511. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं [दूइज्जमाणे] अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा! अवियाई एत्तो पडिपहे पासह उदगपसूताणि 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 383 / 2. 'पडिपहे पासह..' आदि पंक्ति का सारांश चुणिकार ने यों दिया है-पडिपहे गोणमादी आइक्खध= दूरगतं, सेह-अब्भासत्थं ।'–प्रतिपथ में---मार्ग में वृषभ आदि देखा है ? आइक्खह (ध)=दूरगत वस्तु के विषय में और सेहनिकटस्थ वस्तु के विषय में प्रयुक्त हुआ है। दोनों का अर्थ है- बतलाओ, कहो-दिखाओ। 3. 'परिजाणेज्जा के स्थान पर परिजाणेज्ज' पाठ मानकर चणिकार अर्थ करते हैं- परिजाणेज्ज 'कहिज्ज' 1 परिजाणेज्ज का अर्थ है--कहे। 4. 'उगदगपसूयाणि पाठान्तर मानकर चूर्णिकार प्रश्नकर्ता का आशय बताते हैं-'पुच्छति छुहाइतो तिसिओ उदगं पिविउकामो रंधेउकामो, सीयाइतो वा अग्गी।' अर्थात भूखा कंद आदि के विषय में पूछता है, जो पानी पीना चाहता है, वह प्यासा पानी के विषय में पूछता है, जो भोजन पकाना चाहता है, वह आग के विषय में पूछता है। / अर्थात् भूला कद आदि के विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org