Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 226 आचारांग सूत्र-द्वितीय भू तस्कन्ध सम्बोधित करे / ये और जितने भी इसप्रकार के अन्य व्यक्ति हों, उन्हें इसप्रकार की (सौम्य) भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे कुपित नहीं होते। अतः इसप्रकार की निरवद्यसौम्य भाषाओं का विचार करके साधु-साध्वी निर्दोष भाषा बोले / 535. साधु या साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि उन्नतस्थान या खेतों की क्यारियाँ, खाइयां या नगर के चारों ओर बनी नहरें, प्राकार (कोट), नगर के मुख्य द्वार, (तोरण), अर्गलाएं, आगल फंसाने के स्थान, गड्ढे, गुफाएं, कूटागार, प्रासाद, भूमिगृह (तहखाने), वृक्षागार, पर्वतगृह, चैत्ययुक्त वृक्ष, चैत्ययुक्त स्तूप, लोहा आदि के कारखाने, आयतन, देवालय, सभाएं, प्याऊ, दूकानें, मालगोदाम, यानगृह, धर्मशालाएं, चूने, दर्भ, बल्क के कारखाने, वन कर्मालय, कोयले, काष्ठ आदि के कारखाने, श्मशान-गृह, शान्तिकर्मगृह, गिरिगृह, गुहागह, पर्वत शिखर पर बने भवन आदि; इनके विषय में ऐसा न कहें; जैसे कि यह अच्छा बना है, भलीभांति तैयार किया गया है, सुन्दर बना है, यह कल्याणकारी है, यह करने योग्य है; इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवोपघातक भाषा न बोलें। 536. साधु या साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि खेतों की क्यारियां यावत् भवनगृह; तथापि (कहने का प्रयोजन हो तो) इस प्रकार कहें-जैसे कि यह आरम्भ गे बना है सावद्यकृत है, या यह प्रयत्न-साध्य है, इसीप्रकार जो प्रसादगुण से युक्त हो, उसे प्रासादीय, जो देखने योग्य हो, उसे दर्शनीय, जो रूपवान हो उसे अभिरूप, जो प्रतिरूप हो, उसे प्रतिरूप कहे / इस प्रकार विचारपूर्वक असावद्य यावत् जीवोपधात से रहित भाषा का प्रयोग करे। 537. साधु या साध्वी अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर भी इस प्रकार न कहे जैसे कि यह आहारादि पदार्थ अच्छा बना है, या सुन्दर बना है, अच्छी तरह तैयार किया गया है, या कल्याणकारी है और अवश्य करने योग्य है। इसप्रकार की भाषा साधु या साध्वी सावद्य यावत् जीवोपघातक जानकर न बोले / 538. साधु या साध्वी मसालों आदि से तैयार किये हुए सुसंस्कृत आहार को देखकर इसप्रकार कह सकते हैं, जैसे कि यह आहारादि पदार्थ आरम्भ से बना है, सावद्यकृत है, प्रयत्नसाध्य है या भद्र अर्थात् आहार में प्रधान है, उत्कृष्ट है, रसिक (सरस) है, या मनोज्ञ है। इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा का प्रयोग करे। __ 536. वह साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, सांड, भंस, मृग, या पशु पक्षी, सर्प या जलचर अथवा किसी प्राणी को देखकर ऐसा न कहे कि यह स्थूल (मोटा) है, इसके शरीर में बहुत चर्बी--मेद है, यह गोलमटोल है, यह वध या वहन करने (बोझा ढोने) योग्य है, यह पकाने योग्य है / इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवघातक भाषा का प्रयोग न करे / 540. संयमशील साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, बैल, यावत् किसी भी विशालकाय प्राणी को देखकर ऐसे कह सकता है कि यह पुष्ट शरीरवाला है, उपचितकाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org