Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 158 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्र तस्कन्ध 'आइष्णं संलेषखं' का तात्पर्य चूर्णिकार के अनुसार यों है- आइण्ण का अर्थ है-सागारिक गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) आदि से व्याप्त, सलेक्स का अर्थ है-~-चित्र कर्म से युक्त उपाश्रय / ' संस्तारक ग्रहणा-ग्रहण विवेक 455. [1] से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा संथारग एसित्तए / से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणगं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। [2] से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं गरुयं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। [3] से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुयं अप्पडिहारियं तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। [4] से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुयं पडिहारियं, णो अहाबद्ध, तहप्पगारं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। {5] से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पडं जाव संताणगं लहुयं पडिहारियं अहाबद्ध, तहप्पगारं संथारगं जाव लाभे संते पडिगाहेज्जा। 455. (1) कोई साधु या साध्वी संस्तारक की गवेषणा करना चाहे और वह जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो मे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। (2) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु भारी है, वैसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। (3) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका भी है, किन्तु अप्रातिहारिक (दाता जिसे वापस लेना न चाहे) है, तो ऐसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। (4) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका भी है, प्रातिहारिक (दाता जिसे वापस लेना स्वीकार करे) भी है, किन्तु ठीक से बंधा हुआ नहीं है, तो ऐसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। (5) वह साधु या साध्वी, संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका है, प्रातिहारिक है और सुदृढ़ बंधा हुआ भी है, तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर ग्रहण करे। विवेचन-संस्तारक ग्रहण का निषेध-विधान-इस एक ही सूत्र के पाँच विभाग करके 1. (क) 'आदिग्णो णाम सागारियमादिणा, सलेक्खो सचित्तधम्म / ' –आचा० चूणि मूलपाठ पृ०-१६४ (ख) तुलना करें--(विहार में) स्त्री, पुरुष के चित्र नहीं बनवाना चाहिए / जो बनवाए उसे दुक्कटट का दोष हो। --विनयपिटक-चुल्लवग, पृ० 455 (राहुल सां०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org