Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 462 (5) शयनकाल या शय्या पर उठते-बैठते श्वासोच्छ्वास, खांसी, छीक, उबासी, डकार, अपानवायुनिसर्ग आदि करने से पूर्व हाथ से उस स्थान को ढक कर रखे। वृत्तिकार कहते हैं--एक साधु को दूसरे साधु से एक हाथ दूर सोना चाहिए।' 'आएसेण' आदि पदों का अर्थ-आएसेण = पाहुना, अभ्यागत अतिथि, साधु / आसाएज्जा= संघट्टा करे, स्पर्श करे या टकराए / जंभायमाणे-उबासी-जम्हाई लेते हुए, उड्डोएडकार लेते समय, बाणिसग्गे-अधोवायु छोड़ते समय , आसयं =आस्य-मुख, पोसयं =अधिष्ठान मलद्वार-गुदा / शय्या-समभाव 462. से भिक्खू वा 2 समा वेगया सेज्जा भवेज्जा, विसमा वेगया सेज्जा भवेज्जा, पवाता वेगया सेज्जा भवेज्जा, णिवाता वेगया सेज्जा भवेज्जा, ससरक्खा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अप्पसरक्खा वेगया सेज्जा भवेज्जा, सवंस-मसगा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अप्पदंस-मसगा वेगदा सेज्जा भवेज्जा, सपरिसाडा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अपरिसाडा वेगया सेज्जा भवेज्जा, सउवसग्गा वेगया सेज्जा भवेज्जा, णिस्वसग्गा वेगया सेज्जा भवेज्जा, तहप्पगाराई सेज्जाहि संविज्जमाणाहि पम्महिततरागं विहारं विहरेज्जा / णो किंचि वि गिलाएज्जा। 1. इस सूत्र का भावार्थ चणि में इस प्रकार है----"सेज्जासंथारम-भूमिए गिज्झतीए इमे आयरियगादि एक्कारस मुतित्त सेसाणं जहाराइणिया गणी अण्णगणाओ आयरिओ, गणधरो अज्जाणं वावारवाहत, एतेसि विसेसो कप्पे, बालादीण य ठाणा तत्थेव सम-विसम-पवाय-निवायाण य तन व अंतो मज्झे वा। -अर्थात् शय्यासंस्तारक भूमि ग्रहण करते समय, बिछाते समय, आचार्य आदि इन 11 विशिष्ट साधुओं को छोड़कर, शेष मुनियों के लिए यथारत्नाधिककम से बिछाना चाहिए। गणी अन्यगण से आया हुआ आचार्य, गणधर-आर्यों-साधओं का प्रवृत्तिवाहक / इनका विशेष कल्प होता है। बाल आदि साधुओं के लिए सँस्तारक स्थान वहीं सम, विषम प्रवात, निवात स्थान के अन्दर या बीच में होना चाहिए। 2. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक 373 / 3. (क) टीका सूत्र 373 / (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टिप्पणी पृ० 168 / (ग) पाइअ-सद्द-महष्णवो / 4. 'वेगदा' पाठान्तर है। चणिकार ने एगहियतरं पाठान्तर मानकर उसका भावार्थ इस प्रकार किया है—प्रवात-णिवायमादिसु पसत्थासु सइ गाला अप्पसस्थासु सधूमा।"--प्रवात-निर्वात आदि का प्रशस्त शय्याओं पर राग होने से अंगारदोष से युक्त, अथा अप्रशस्तशय्याओं पर द्वष या घृणा होने से वे धमदोष से युक्त बन जाती हैं। 6. इसके स्थान पर वृत्तिकार एवं चूर्णिकार ने "णो किंचि बलाएज्जा' पाठान्तर मान्य करके व्याख्या की है-''वलादि गाम मातं करेति, कहँ ? विसमदंस-मसगादिसु बाहिं अच्छति, अण्णत्थ वा।" बलादि का अर्थ है-माया करता है, कैसे ? विषम-दंश, मच्छर आदि होने पर वह बाहर चला जाता है। वृत्तिकार अर्थ करते हैं-"म तत्र व्यलोकादिकं कुर्यात् !"- इस विषय में मन में बुरा चिन्तन न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org