Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 847-54 157 (7) जिस उपाश्रय के पड़ोस में पुरुष-स्त्रियाँ नंगी खड़ी-बैठी रहती हों, परस्पर मैथुन विषयक वार्तालाप करती हों, गप्त मंत्रणा करती हों। (8) जिसकी दीवारों पर पुरुष-स्त्रियों के, विशेषतः स्त्रियों के चित्र हो।' ...."मसंमज्झेण गंतु वत्थए पडिबद्ध' इस पंक्ति में 'वत्थए' के बदले ‘पंथए' पाठ मानकर वृत्तिकार इसकी ब्याख्या करते है--जिस उपाश्रय का मार्ग गृहस्थ के घर के मध्य में से होकर है, वहाँ बहुत-से अनर्थों की सम्भावना के कारण नहीं रहना चाहिए। किन्तु बृहत्कल्पसूत्र में इससे सम्बद्ध दो पाठ हैं, उनमें 'वत्थए' पद हैं। 'नो कप्पइ निगंथाण पडिबद्धसेज्जाए क्त्थए', नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्शेण गंतु वत्यए / ' प्रथम सूत्र में है जिस उपाश्रय में गृहस्थ का घर अत्यन्त निकट हो, दीवाले आदि लगी हुई हों उस उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता", दूसरे में है—"गृहस्थों के घर में से होकर जिस उपाश्रय में निर्गमन-प्रवेश किया जाता हो, उसमें रहना नहीं कल्पता / 'बृहत्कल्प सूत्र के अनुसार प्रस्तुत सूत्र में भी ये दोनों अर्थ प्रतिफलित होते हैं / 'इह,खलु पदों का सूत्र 444 से 453 तक प्रयोग किया गया है। इनका तात्पर्य वृत्तिकार ने इस प्रकार बताया है-यत्रप्रतिवेशिका:' जहाँ पड़ौसी स्त्री पुरुष ..... / आचारांग—अर्थागम में इसका अर्थ किया गया--'जिस उपाश्रय-बस्ती में...।' यही अर्थ उचित भी प्रतीत होता है। जहाँ उपाश्रय के निकट ये कार्य होते हों, वहाँ से साधु का जाना-आना या वहाँ स्वाध्याय करना चित्त-विक्षेप या कामोतजना होने से कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता / और न ही ऐसे मकानों के पड़ोस में निवास किया जा सकता है। "णिगिणाठिता....' इत्यादि वाक्य का भावार्थ चणिकार तथा वृत्तिकार के अनुसार यों हैं-- 'स्त्रियाँ और पुरुष नग्न खड़े रहते हैं, स्त्रियाँ नग्न ही प्रच्छन्न खड़ी रहती हैं, मैथुन-धर्म के सम्बन्ध में अविरति गृहस्थ या साधु को कहती हैं, रहस्यमयी मैथुन सम्बन्धी या मैथुन धर्म विषयक रात्रि-सम्भोग के विषय में परस्पर कुछ बातें करती हैं, अथवा अन्य गुप्त अकार्य सम्बद्ध रहस्य को मंत्रणा करती हैं। इस प्रकार के पड़ोस वाले उपाश्रय में कायोत्सर्ग आदि कार्य नहीं करने चाहिए।" 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 370-371 के आधार पर 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 371 (ख) वृहत्कल्पसूत्र मूल तथा वृत्ति 1 / 30, 1 / 32 पृष्ठ 737, 738 (ग) कप्पसुत्त (विवेचन) मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल' 1/32-34 पृष्ठ 18-16 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 371 (ख) अर्थागम भाग 1 पृ० 112 / 5. (क) आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० १५४--"णिगिणा णग्गाओ ट्ठियाओ अच्छंति, णिगिणा तो उवलिज्जति, मेहणधम्म विन्नेति ओभासंति अविरतगं साहुं वा, रधस्सितं-मेहुणपत्तियं चेव अन्न वा किंचि गुहं / ' (ख) आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक 371 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org