Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : बसम उद्देशक : सूत्र 402-404 उलएज्जा / तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते भाव णो पडिगाहेज्जा। से य आहच्च पडिगाहिते सिया, तं जो हि ति वएज्जा, गो धि त्ति वएज्जा, गो अणह ति वएज्जा / से तमाशय एगंतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता] अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा भप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छग भोच्चा अट्ठियाई कंटए गहाए से त्तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, 2 [त्ता अहे झामथंडिल्लसि वा जात्र पमज्जिय पज्जिय परिवेज्जा। 402. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईख के पर्व का मध्य भाग है, पर्व-सहित इक्षुखण्ड (गंडेरी) है, पेरे हुए ईख के छिलके हैं, छिला हुआ अग्रभाग है, ईख की बड़ी शाखाएं है, छोटी डालियां हैं, मूंग आदि की तोड़ी हुई फली तथा चौले की फलियां पकी हुई हैं, (किसी निमित्त से अचित्त हैं), परन्तु इनके ग्रहण करने पर इनमें खाने योग्य भाग बहुत थोड़ा और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक है, (ऐसी स्थिति में) इस प्रकार के अधिक फेंकने योग्य आहार को अकल्पनीय और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी न ले। 403. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि इस गूदेदार पके फल (मांस) में बहुत गुठलियाँ (अस्थि) हैं, या इस अनन्नास (मच्छ) में बहुत कांटे हैं, इसे ग्रहण करने पर इस आहार में खाने योग्य भाग अल्प है, फेंकने योग्य भाग अधिक है, तो इस प्रकार के बहुत गुठलियों तथा बहुत कांटों वाले गूदेदार फल के प्राप्त होने पर उसे अकल्पनीय समझ कर न ले। 404. भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रवेश करे, तब यदि वह बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फलों के लिए आमंत्रण करे---"आयुष्मन् श्रमण ! क्या आप बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फल लेना चाहते हैं ?" इस प्रकार का वचन सुनकर और उस पर विचार करके पहले ही साधु उससे कहे.-आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या बह्न ! बहुत-से बीज-गुठली से युक्त फल लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है / यदि तुम मुझे देना चाहते/चाहती 1. तं णो हि त्ति वएज्जा, णो धि त्ति वएउजा, जो अणह त्ति वएज्जा के स्थान पर पाठान्तर है णो हि ति बएम्जा, जो वित्ति वएज्जा, गो हंबह ति वएज्जा,....."णो अमह त्ति वएज्जा। इन सबका भावार्थ चूर्णिकार ने यों दिया है.--'बहूट्टिते दिग्णे हि ति हिति हस्सि विति य गंवा फरसं ण मज्जा '-~गृहस्थ द्वारा बहुत गुठलियों वाला आहार देने पर हिहि करके उसकी हंसी न उदाए, और न ही कठोर वचन बोले। 2. यहाँ जाव शब्द से अप्परे से लेकर संताणए तक का पाठ सू० 324 के अनुसार समझें। 3. यही सामपंडिल्लंसि वा के बाद जाव शब्द सू० 324 के अनुसार पमज्जिय तक के पाठ का सूचक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org