Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 426-27 131 “विसूइया' आदि पदों के अर्थ---विसूइया=विसूचिका-हैजा, छड्डो-वमनरोग, उत्बाहेम्जा=पीडित करें, कक्केण-चन्दनादि के उबटन द्रव्य से ! वृत्तिकार के अनुसारकाषायरंग के द्रब्य के काढे से, वण्णेण=कम्पिल्लक आदि द्रव्यों से बने हुए लेपसे, उच्चावचं मणंनियच्छेज्जा-मन ऊंचा-नीचा करेगा, उच्च मन-ऐसा न करें, अवच मन =ऐसा करें। चूर्णिकार के मत से अनेक प्रकार का मन / सअट्ठाए अपने प्रयोजन से, गुणे-करधनी. कडगाणिकड़े, तुडियाणि-बाजूबन्द, पालबाणिः-- लम्बी पुष्पमाला, सड्ढी = पुत्रोत्पत्ति में श्रद्धा रखने वाली स्त्री, पडियारणाए -मैथुन-सेवन करने के लिए आउट्टावेज्जा प्रवृत्त करे, अभिमुख करे / साएज्जा आकांक्षा करे।' 426. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / 426 यही (शय्यषणा-विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञानादि आचार की) समग्रता है। // शय्यषणा-अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त॥ बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक गृहस्थ संसक्त उपाश्रय-निषेध 427. गाहावती नामेगे सुइसमायारा भवंति, भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से सेगंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवति, जं पुवकम्मं तं पच्छाकम्मं, जं पच्छाकम्मं तं पुव्यकम्म, ते भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करेज्ज वा णो वा करेज्जा। 1. (क) पाइअ सह महण्णवो (ख) आचाराँग वृत्ति पत्रांक 362.363 (ग) आचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 146 2. से मंधे दुग्गंधे' का तात्पर्य चूर्णिकार के शब्दों में—'तेग तेसिं सो गंधो पडिकूलो' इस कारण उन (गृहस्थों) को वह गन्ध प्रतिकूल लगता है। 3. जं पुख्वकम्मं आदि पंक्ति का तात्पर्य चर्णिकार के शब्दों में-"जं पुग्यकम्मं ति गिहत्थाणं पुब्वकम्म उच्छोलणं, तं च पच्छा पव्वज्जाए वि कुज्जा, मा उड्डाहो होहिति, तत्थ बाउसदोसा, अह ण करेति तो उड्डाहो। अहवा ताई पुटबपए जामेता ईओ पच्छा संजयउवरोहा, सुत्तत्थाणं उसूरे वा, पच्छिमाए पोरिसीए जेमेताइओ ताहं संजयाणं पाढवाधातो त्ति पदे व जिमिताई। उवक्खडणा वि एवं प्रत्यागते उस्सक्कणं, उस्सक्कणदोसा भिक्षुभावो भिक्खुपडियाए बट्टमाणा करेज्ज वा ण वा / ' "अर्थात्गृहस्थों का जो पूर्व कर्म-शरीर प्रक्षालन आदि का, उसे अब प्रवज्या लेने के पश्चात् भी करेगा, इसलिए कि निन्दा न हो। ऐसा करने से बकुश (विभूषादि से चरित्र को मलिन करने वाले) दोष होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org