Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र- द्वितीय श्रुतस्कन्ध चुनेगा, उसमें अगर जीवों के अंडे हों, बीज हों, अन्न हों, हरियाली उगी हुई हो, ओस या कच्चा पानी हो, गीली मिट्टी हो, काई या लीलण-फूलण हो अथवा चींटियों का बिल आदि हो तो ऐसे मकान में या स्थान में निवास करने से उन सब जीवों को पीड़ा होगी, वे साधु की जरा-सी असावधानी से दब या मर सकते हैं, यहाँ तक कि उन्हें स्पर्श करने से भी उन्हें दुःख हो सकता है। वनस्पति सजीव है, पानी में भी जीव हैं, यह बात वर्तमान जीव वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके सिद्ध कर दी है। इसी कारण साधु को ऐसे उपाश्रय में रहकर कोई भी किया करना निषिद्ध बताया है। साथ ही जीवों से रहित, शुद्ध, निर्दोष स्थान हो तो वहां निवास करने का विधान किया है।' 'पलालपुजेसु'-चावलों की घास को पराल या पुआल कहते हैं, उसके ढेर को पलालपुंज कहते हैं। नव विध शय्या-विवेक 432. से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं 2 साहम्मिएहिं ओवयमार्गाह णो ओवतेज्जा। 433. से आगंतारेसु वा 4 जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणित्ता तत्थेव भुज्जो संबसंति अयमाउसो कालातिक्कंतकिरिया वि भवति / 434. से आगंतारेसु वा 4 जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तं दुगुणा दुगुणेण अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो संबसंति अयमाउसो उवट्ठाणकिरिया यावि भवति। 435. इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतिया सड्ढा भवंति, तंजहा-गाहावती वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति, तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमार्णोह तं रोयमाणेहि बहवे समण-माण-अतिहिकिवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहिं अगाराई चेतिताई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाणि वा पवाणि 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 365 के आधार पर। 2. णो ओवतेज्जा के स्थान पर पाठान्तर है-'णो वएज्जा, णो य वतेज्जा / वृत्तिकार अर्थ करते हैं--- 'नावपतेत्'-वहाँ मासकल्पादि निवास न करे / 3. आगंतारेसु वा के बाद 'x' का चिन्ह 'आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा' तक के पाठ का सूचक है, सूत्र 432 के अनुसार। 4. पाईणं वा के बाद '4' का अर्थ शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। 5. चूणिकार के शब्दों में आएसणाणि' आदि पदों की व्याख्या आएसणाणि--छरण सिझं ति वणि बुज्झंति, अहवा लोहारसालमादी। आयतणं-पासंडाणं अवच्छत्तिया कडडरस पासे / देवउलं-वाणमंतर रहितं, देउलं सवाण मंतरं सपडिम इत्यर्थः / समा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org