Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : एकादश उद्देशक : सूत्र 407-8 107 तिक्त यावत् मीठे को मीठा बताए / रोगी को स्वास्थ्य लाभ हो, वैसा पथ्य आहार देकर उसकी सेवा-शुश्रूषा करे। ___.8. यदि समनोज्ञ स्थिरवासी साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले (दूसरे स्थान से आए) साधुओं को मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर यों कहें कि 'जो भिक्षु रोगी है, उसके लिए यह मनोज्ञ (पथ्य) आहार ले जाओ, अगर वह रोगी भिक्षु इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे पास ले आना, क्योंकि हमारे यहां भी रोगी साधु है / इस पर आहार लेने वाला वह साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विघ्न उपस्थित न हुआ तो यह आहार वापस ले आऊंगा।' ( यों वचन-बद्ध साधु वह आहार रुग्ण साधु को न देकर स्वयं खा जाता है, तो वह मायास्थान का स्पर्श करता है।) उसे उन पूर्वोक्त कर्मों के आयतनों (कारणों) का सम्यक् परित्याग करके (सत्यतापूर्वक यथातथ्य व्यवहार करना चाहिए / ) विवेचन----मापारहित आहार-परिभोग का निर्देश-सू० 407 और 408 में शास्त्रकार ने आहार के उपभोग के साथ कपटाचार से सावधान रहने का निर्देश दिया है। निर्दोष भिक्षा के साथ जहाँ स्वाद-लोलुपता जुड़ जाती है, वहां मायाचार, दम्भ और दिखावा आदि बुराइयां साधु जीवन में घुस जाती हैं / रुग्ण साधु के लिए लाया हुआ पथ्य आहार उसे न देकर वाक्छल से उसे उलटा-सीधा समझा कर स्वयं खाजाता है, वह साधु मायाचार करता है / वृत्तिकार उक्त मायाचारी साधु के मायाचार को दो भागो में विभक्त करते हैं-(१) पहले वह मन में ही कपट करने का घाट घड़ लेता है, (2) तदनन्तर ग्लान भिक्षु को वह आहार अपथ्य बताकर स्वयं खा लेता है। सूत्र 408. में भी वह रुग्ण भिक्षु के साथ कपट करने के लिए उन्हीं पूर्वोक्त बातों को दोहराया है / इसमें थोड़ा-सा अन्तर यह है कि आहार लाने वाला साधु उन आहारदाता साधुओं के साथ वचनबद्ध हो जाता है, कि अगर वह रुग्ण साधु इस आहार का उपभोग नही करेगा तो कोई अन्तराय न होने पर मैं इस आहार को वापस आपके पास ले आऊंगा।" किंतु रुग्ण साधु के पास जाकर उसे पुराने आहार की अपथ्यता के दोषों को बताकर रुग्ण को वह आहार न देकर स्वाद-लोलुपतावश स्वयं उस आहार को खा जाता है और उन साधुओं को बता देता है कि रुग्ण-सेवा-काल में ही मेरे पेट में पीड़ा उत्पन्न हो गई, इस अन्तरायवश मैं उस ग्लानार्थ दिये गए आहार को लेकर न आ सका, इस प्रकार दोहरी माया का सेवन करता ___ 'इच्छयाइ आयतणाई'-चूर्णिकार के शब्दों में व्याख्या--कदाचित् रुकावट होने के कारण वह ग्लानसाधु के लिए उस आहार पानी को न भी ले जा सके। जैसे कि सूर्य अस्त होने आया हो, रास्ते में सांड या भंसा मारने को उद्यत हो, मतवाला हाथी हो, कोई पीड़ा हो गई हो, 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 355 के आधार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org