Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 415 116 आदि का समारम्भ करके बनाया गया है, खरीदा आदि गया हैं, वह अपुरुषान्तरकृत आदि हो, तो ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, शय्यासंस्तारक एवं स्वाध्याय न करे / _ [2] वह साधु या साध्वी यदि ऐसा उपाश्रय जाने; जो कि बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रों एवं भिखमंगों के खास उद्देश्य से बनाया तथा खरीदा आदि गया है, ऐसा उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत आदि हो. अनायेवित हो तो, ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, शय्यासंस्तारक या स्वाध्याय न करे। _ इसके विपरीत यदि सा उपाश्रय जाने, जो श्रमणादि को गिन-गिन कर या उनके उद्देश्य से बनाया आदि गया हो. किन्तु वह पुरुषान्तरकृत है, उसके मालिक द्वारा अधिकृत है, परिभक्त तथा आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके उसमें यतनापूर्वक कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करे। विवेचन-उपाश्रय-निर्वाचन का द्वितीय विवेक प्रस्तुत दो सूत्रों में उपाश्रय-निर्वाचन का द्वितीय विवेक बताया है। इनमें मुख्यतया चार बातों की ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा गया (1) जो उपाश्रय एक या अनेक निर्ग्रन्थ सार्मिक साधु-साध्वियों के लिए बनाया, खरीदा आदि गया हो। (2) जो उपाधय सर्वसाधारण भिक्षाचरों (जिनमें निर्ग्रन्थ श्रमण भी आ जाते हैं) की गिनती करके या उनके निमित्त बनाया, खरीदा आदि गया हो। (3) किन्तु इन दोनों प्रकार के उपाश्रयों में से प्रथम प्रकार के उपाश्रय के सम्बन्ध में पुरुषान्तर-अपुरुषान्तरकृत, अधिकृत-अनधिकृत, स्थापित-अस्थापित, परिभुक्त-अपरिभुक्त या मासे वित-अनासेवित का कोई पता न हो तथा दूसरे प्रकार के उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत आदि हों तो ये उपाश्रयों में कायोत्सर्गादि क्रिया न करे। (4) यदि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के उपाश्रयों के सम्बन्ध में पक्का पता लग जाए कि वे पुरुषान्तरकृत हैं, अलग से स्थापित नहीं हैं, दाता द्वारा अधिकृत, परिमुक्त या आसेवित हैं, तो ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्गादि क्रिया करे।' औद्देशिक उद्गमादि दोषों से बचने के लिए ही शास्त्रकार ने ऐसा विधान किया है। उपाधय-एषणा [तृतीय विवेक] 415. से भिक्खू बा 2 से ज्जं पुण उवस्मयं जाणेज्जा-अस्संजए भिक्खुपडियाए कडिए' 1. टीका पत्र 360 के आधार पर। 2. 'कडिए' इत्यादि पाठ की व्याख्या देखिए---वृहत्कल्प भाष्य गा० 583, ओर निशीथ भाष्य 2047 में --करितो पासेहि, ओकविसो उरि उल्लवितो, छत्तो उवरि चेव, लेत्तो कुड्डाए, ते उत्तरगुणा मूलगुणे उपहणंति / घट्ठा-विसमा समीकता, मट्ठा-माइंता, समट्ठा-पमज्जिता, संपथूविता-दुग्गंधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org