Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांण सूत्र-द्वितीय श्र सस्कन्छ अग्राह्य लवण-परिभोग-परिष्ठापन विधि 405. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे सिया से परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहए बिलं वा लोणं उभियं वा लोणं परियाभाएत्ता णोहट्ट दलएज्जा / तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पङिगाहेज्जा। से य आहच्च पडिग्गाहिते सिया, तं च णातिदूरगते जाणेज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, 2 [ता पुव्यामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भइणी ति वा इमं किं ते जाणता दिण्णं उदाहु अजाणता ? से य भणेज्जा-णो खलु मे जाणता दिण्णं, अजाणता; काम खलु आउसो ! इवाणि णिसिरामि, तं भुंजह व गं परियाभाएह व णं / तं परेहि समणुण्णायं समणुसट्ठ ततो संजतामेव भुंजेज्ज वा पिएज्ज वा। ____जं च णो संचाएति भोत्तए वा पायए वा, साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया तेसि अणुप्पदातव्वं सिया / णो जत्थ साहम्मिया सिया जहेव बहुपरियावणे कीरति तहेव कायव्वं सिया। 405. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुए साधु या साध्वी को यदि गृहस्थ बीमार साधु के लिए खांड आदि की याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड-लवण या उद्भिज-लवण को विभक्त करके उसमें से कुछ अंश निकाल कर, बाहर लाकर देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उस अप्रासुक अनेषणीय समझ कर लेने से मना कर दे। कदाचित् सहसा उस अचित्त नमक को ग्रहण कर लिया हो, तो मालूम होने पर वह गृहस्थ (दाता) यदि निकटवर्ती हो तो, लवणादि को लेकर वापिस उसके पास जाए / वहाँ जाकर पहले उसे वह नमक दिखलाए, कहे--आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या आयुष्मती बहन ! तुमने मुझे यह लवण जानबूझ कर दिया है, या अनजाने में ? के पदार्थों को ग्रहण नहीं किया। बल्कि आधाकर्म दोष की तरह मांसादि भोजन को मूलतः अशुद्ध मानकर उसका परिहार किया है। उक्त शब्दों का अर्थ स्पष्टतः ज्यों का त्यों---आज तक किसी भी आचार्य व विद्वान आगमज्ञ ने मान्य नहीं किया। या तो इसे अपवाद सूत्र माना है या इन शब्दों का अर्थ अनेक प्राचीन आयुर्वेदिक आदि ग्रन्थों के आधार पर--वनस्पतिपरक स्वीकार किया है। हमारे विचार में अपवाद सूत्र मानने का भी कोई विशेष महत्त्व नहीं, क्योंकि श्रमण ऐसी पंचेन्द्रिय-हिसाजन्य वस्तु को शरीर के बाह्य उपभोग में भी नहीं लेता। अतः उनका वनस्पतिअर्थ ही अधिक संगत लगता है। इसी सूत्र में--(अध्ययन 1 सूत्र 45) पंचेन्द्रिय शरीर तथा वनस्पति शरीर की समानधर्मिता स्पष्टत: बतायी है, अतः वनस्पति विशेष में गदे, बीज, गुठली, कांटे आदि के कारण उनकी भी पंचेन्द्रिय शरीर के विकार (मांस-हड्डी) आदि के साथ-तुलना की जा सकती है। भारत के अनेक प्रान्तों (बंगाल-बिहार-पंजाब) में आज भी 'मच्छ 'कुकडी' आदि शब्द वनस्पति विशेष के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं / सम्पादक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org