Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : नवम उद्देशक : सूत्र 367-68 ग्रासवणा-विवेक 367. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण जाणेज्जा असणं व 4 परं समुहिस्स बहिया गोहडं तं परेहि असमणुण्णातं अणिसिट्ठ' अफासुयं जाव' णो पडिगाहेज्जा / तं परेहि समणुण्णातं समणुस? फासुयं जाव लाभे संते पडिगाहेज्जा। 367. गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि दूसरे (गुप्तचर, भाट आदि) के उद्देश्य से बनाया गया आहार देने के लिए निकाला गया है, परन्तु अभी तक उस घरवालों ने उस आहार को ले जाने की अनुमति नहीं दी है और न ही उन्होंने उस आहार को ले जाने या देने के लिए उन्हें सोंपा है, (ऐसी स्थिति में) यदि कोई उस आहार को लेने की साधु को विनति करे तो उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर स्वीकार न करे। यदि गृहस्वामी आदि ने गुप्तचर भाट आदि को उक्त आहार ले जाने की भलीभांति अनुमति दे दी है तथा उन्होंने वह आहार उन्हें अच्छी तरह से सोंप दिया है और कह दिया है-तुम जिसे चाहो दे सकते हो, (ऐसी स्थिति में) साधु को कोई विनति करे तो उस आहार को प्रासुक और एषणीय समझकर ग्रहण कर लेवें।। विवेचन---आहार-ग्रहण में विवेक-इस सत्र में एक के स्वामित्व का आहार दूसरा कोई देने लगे तो साधु को कब लेना है, कब नहीं ? इस सम्बन्ध में स्पष्ट विवेक बताया है। जिसका उस आहार पर स्वामित्व है, उस घरवाले यदि दूसरे व्यक्ति को उस आहार को सौंप दे और यथेच्छ दान की अनुमति दे दें तो वह आहार साधु के लिए ग्राह्य है अन्यया नहीं। नोहडं आदि पदों के अर्थ-नोहडं =निकाला गया है, असमणुष्णातं = किसको देना है, इसकी सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा (अनुमति) नहीं दी गई है, ‘अणिसिट्ठ' = सोंपा नहीं गया है। 398. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / 368. यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनादि की) समग्रता है / / ॥णवमो उद्देसओ समत्तो॥ 1. इसके स्थान पर असमणिठं पाठान्तर है। अर्थ होता है- सम्यक प्रकार से नहीं दिया गया है। 2. अफासुयं के बाद जाव शब्द अणेसणिज्ज मण्णमाणे लाभे संते'-इतने पाठ का सूचक है। 3. समणुसळं के स्थान पर पाठान्तर मिलते हैं / समणिसठ्ठ, समणिहें णिसळं तथा णिसिट आदि / अर्थ क्रमश: यों है-सम्यक रूप से सौंप दिया, अच्छी तरह से दिया है, दे दिया है, सौप दिया है। 4. यहाँ फासुयं के बाद जाव शब्द एसणिज्ज मण्णमाणे-इतने पाठ का सूचक है। 5. आचारांग वृत्ति पत्रांक 352 6. इसका विवेचन सत्र 334 के अनसार समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org