Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 375-84 वा, अण्णतरं वा सहप्पगारं पलंबजातं आमगं असत्थपरिणतं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव लाभे संते गो पडिगाहेज्जा / 378. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण पवालजातं जाणेज्जा, तंजहा-आसोत्थपवालं' वा गग्गोहपवालं वा पिलखुपवालं वा णिपूरपवालं वा सल्लइपवालं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं पवालजातं आमगं अमत्थपरिणतं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव जो पडिगाहेज्जा। __376. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण सरड्यजायं जाणेज्जा, तंजहासरड्यं वा कविद्वसरडुयं वा दालिमसरडुयं वा बिल्लसरऽयं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं सरड्यजातं आमं असत्थपरिणतं अफासुर्य जाव णो पङिगाहेज्जा। ___ 380. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण मंथुजातं जाणेज्जा, तंजहा-उंबरमंथु वा जग्गोहमंथु वा पिलक्खुमंथु वा आसोमंथं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं मधुंजातं आमयं दुरुक्कं साणुबोयं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। ___ 381. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा आमडाग वा पूतिपिण्णार्ग वा मथु वा मज्ज वा सप्पि वा खोलं वा पुराणगं, एत्थ पाणा अणुप्पसूता, एत्थ पाणा जाता, 1. देखिए आचा० चूणि में आसोत्थ....आदि पदों का अर्थ-"आसोढपलासं वा, आसोढ़ दो (ठो) पिप्पलो तेसि पल्लवा खज्जंति / नग्गोहो नाम वडो, पिलक्खू पिप्परी, णिपूरसल्लइए वि / अर्थात् आसोल पिप्पल को कहते हैं, उसके पत्ते खाये जाते हैं। त्यग्रोध बड़ का नाम है, पिलक्खू-पिप्परी, णिपूर=सल्लकी को भी कहते हैं। 2. 'सरड्यं' के स्थान पर सरदयं पाठान्तर है। तथा तंजहा के बाद पठित 'सरडुयं वा' के स्थान पर किसी-किसी प्रति में कविठ्ठसरड्यं वा अथवा अंग्रसरडुयं वा पाठान्तर है / चूर्णिकृत अर्थ 'अंबसरडुगं तरुणगं डोहियं वा, एवं अंबाडग-किवट्ठदाडिम-बिल्लाण वि। आम्र का सरडय तरुणक फल विशेष है। इसी प्रकार अंबाडक, कपित्थ, अन्तर और बेलफलों के भी सरड्य को समझें। 3. मंथुनाम फलचूणों, एवं णग्गोह-पिलक्खू-असोट्ठाणं अर्थात् मथुफल चूर्ण अर्थ में है। इसी प्रकार न्यग्रोध, प्लक्ष एवं अश्वत्थ फलों के चूर्ण अर्थ में समझ लेना चाहिए। चुणि में आमडागं के स्थान पर अमडडागं पाठ मानकर अर्थ किया गया है-अमउडाग पत्र, न मृतं अमृतं सजीवमित्यर्थः / अर्थात् अमड= नहीं मरा हुआ सजीव डाग-यानी पत्र अमडडाग है। पूतिपिण्णाग का अर्थ चर्णिकार ने किया है 'प्रतीपिण्णाओ सरिसवखलो, अहवा सव्यो चेव खलो कुधितो पूतिपिण्णाओ अर्थात् पूतिपिण्णाओ-सरसों के खल का नाम है अथवा सभी प्रकार के कुथित =सड़े हुए खल को पूतिपिण्याक कहते हैं। 6. मधु आदि के विकृत हो जाने का समर्थन चर्णिकार ने किया है--'मपि संसजति तवणेहि / एवणवमीय-सप्पी वि।' मधु (शहद) भी विकृत हो जाने पर उस रंग के जीवों से संसक्त हो जाता है, इसी प्रकार मक्खन और घी अपने वर्ण के जीवों से संसक्त हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org