Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध जिसमें गुठली न बंधी हो, ऐसा कोमल (कच्चा) फल।' मंथु = फल का कूटा हुआ चूर्ण, चूरा, बकनी / आमयंकच्चा। दुरुषक-थोड़ा पीसा हुआ। सागुरीयं-जिसका योनि बीज विध्वस्त न हुआ हो / उसछुमेरक-ईख का छिलका उतार कर छोटे-छोटे टुकड़े किये हुए हों, वह गंडेरी / अंककरेलुअं आदि सिंघाड़े की तरह जल में पैदा होने वाली वनस्पतियां हैं। अग्गबीयाणि = उत्पादक भाग को बीज कहते हैं जिसके अग्र भाग बीज होते हैं, जैसेकोरंटक, जपापुष्प आदि वे अग्रबीज कहलाते हैं। भूलनीयाणि =-जिन (उत्पलकंद आदि) के मुल ही बीज है। खंधबोयाणि-जिन (अश्वत्थ, थूहर, कैथ आदि) के स्कन्ध ही बीज हैं, वे। पोरबीयाणिम्-जिन (ईख आदि) के पर्व-पोर ही बीज हैं, वे। काणग =छिद्र हो जाने से काना फल, या ईख / अंगारिय-रंग बदला हुआ, या मुझाया हुआ फल / संमिस्स-जिसका छिलका फटा हआहो। विगमिय=सियारों द्वारा थोडा खाया हआ। वेत्तम्गगं-बेंत का अग्र भाग। लसुणचोयग-लहसुन के ऊपर का कड़ा छिलका। अत्थियं आदि प्रत्येक कुम्भीपक्व से सम्बन्धित हैं। आमडागं कच्चा हरा पत्ता, जो अपक्व या अर्धपक्व हो, पूतिपिण्णागं का अर्थ-सड़ा हुआ खल होता है, दशवकालिक जिनदास चूर्णि के अनुसार पूति का अर्थ सरसों की पिट्ठी का पिण्ड है। पिण्याक का अर्थ है---खल 6 पुराने मधु-मद्य-धूतादि अग्राह्य—मधु, मद्य, घृत आदि कुछ पुराने हो जाने पर इनमें उनके ही जैसे रंग के जीव पैदा हो जाते हैं, जो वहीं बार-बार जन्म लेते, बढ़ते हैं, जो वहीं बने रहते हैं। इसीलिए कहा है-एस्थ पाणाअणुप्पसूता ...."अविवत्था / " 'तबकलोमत्थएण' का तात्पर्य-कन्दली के मस्तक, (मध्यवर्ती गर्भ), कंदली के सिर, नारियल के मस्तक और खजूर के मस्तक के सिवाय अन्यत्र जीव नहीं होता / इनके मस्तक स्थान छिन्न होते ही जीव समाप्त हो जाता है। 386. एयं खलु तस्स भिक्खस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं / 386. यह (वानस्पतिकायिक आहार-गवेषणा) उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनचारित्रादि से सम्बन्धित) समग्रता है। // अट्ठम उद्देसओ समत्तो॥ 1. (क) पाइअसह• पृ० 878 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 647 / 2. (क) पाइअसद्द० पृ० 664 / (ख) दशव• जिन० चूणि पृ० 160 / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / 4. (क) दशवै० हारि० टीका प० 166 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / 5. आचारांग वृत्ति पत्रांक 386 / 6. (क) आचारांग वृत्ति पत्र 348 / (ख) दशवै० जिन० चूणि पृ० 168 / 7. आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / / 8. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 348 / (ख) आचा० चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 133 6. इसका विवेचन ३३४वें सूत्र के अनुसार समझें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org