Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 73 प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 368 मिट्टी के लेप से लिप्त बर्तन के मुख को खोलकर दिया गया आहार लेने में उद्भिन्नदोष बताया है, किन्तु दशवकालिकसूत्र में बताया गया है कि जल-कुम्भ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र (लोढ़ा), मिट्टी के लेप और लाख आदि श्लेष द्रव्यों से पिहित (ढके, लिपे और मूंदे हुए) बर्तन का श्रमण के लिए मुंह खोलकर आहार देती हुयी महिला को मुनि निषेध करे कि 'मैं इस प्रकार का आहार नहीं ले सकता।' उद्भिन्न से यहां मिट्टी का लेप ही नही, लाख, चपड़ा, कपड़ा, लोह, लकड़ी आदि द्रव्यों से बंद बर्तन का मुंह खोलने का भी निरूपण अभीष्ट है, अन्यथा सिर्फ मिट्टी के लेप से बन्द बर्तन के मुंह को खोलने में ही षट्काय के जीवों की विराधना कैसे संभव है ? पिण्डनियुक्ति गाथा 348 में उद्भिन्न दो प्रकार का बताया गया है-(१) पिहितउद्भिन्न और (2) कपाट-उद्भिन्न। चपड़ी, मिट्टी, लाख आदि से बन्द बर्तन का मुंह खोलना पिहित उद्भिन्न है, और बंद किवाड़ का खोलना कपाटोद्भिन्न है। पिधान (ढक्कन-लेप) सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का हो सकता है, उसे साधु के लिए खोला जाए और बन्द किया जाए तो वहाँ पश्चात्कर्म एवं आरम्भजन्य हिंसा की सम्भावना है। इसीलिए यहाँ पिहित-उद्भिन्न आहार-ग्रहण का निषेध किया है। लोहा-चपड़ी आदि से बंद वर्तन को खोलने में अग्निकाय का समारम्भ स्पष्ट है, अग्नि प्रज्वलित करने के लिए हवा करनी पड़ती है, इसलिए वायुकायिक हिंसा भी सम्भव है, घी आदि का ढक्कन खोलते समय नीचे गिर जाता है तो पृथ्वीकाय,-वनस्पतिकाय और छोटे-छोटे त्रसजीवों की विराधना भी सम्भव है / बर्तनों के कई छांनण (बंद) मुंह खोलते समय और बाद में भी पानी से भी गृहस्थ धोते हैं, इसलिए अप्काय की भी विराधना होती है। लकड़ी का डाट बनाकर लगाने से वनस्पतिकायिक जीवों की भी विराधना सम्भव है।' षटकाय जीव-प्रतिष्ठित आहार-ग्रहण निषेध 368. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 पुढविक्कायपतिद्वितं / तहप्पगारं असणं वा 4 अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। अप्काय-अग्निकाय प्रतिष्ठित आहार-ग्रहण निषेध से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 आउकायपतिष्ठितं तह चेव / एवं अगणिकायपतिद्वितं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / 1. दगावारएण पिहियं, नौसाए पीढ़एण वा। लोदेण वावि लेवेण, सिलेसेण व केणइ // 4 // तंच उम्मिविया उज्ज, समणटठाए व बावए। बेतियं पडिआइक्खन मे कम्पइ तारिसं // 46 // 2. (क) आचा० टीका पत्र 344 से आधार पर। 3. आचा. टीका पत्र 344 के आधार पर / -दसवै० अ० 5 उ०१ (ख) पिण्डनियुक्ति गाथा 348 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org