Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 76 प्रथम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 372-73 दशवकालिक आदि आगमों में इसका विस्तृत निरूपण है।। 'पाणगजायं' आदि पदों के अर्थ- पाणगजायं-पानक (पेयजल) के प्रकार, उस्सेइमं = आटा ओसनते समय जिस पानी में हाथ धोए जाते हैं, डुबोये जाते हैं, वह पानी उत्स्वेदिम कहलाता हैं। संसेइम- तिल धोया हुआ पानी अथवा अरणि या लकड़ी बुझाया हुआ पानी संस्वेदिम होता हैं।' अहुणाधोयं =ताजा धोया हुआ (धोवन) पानी; अबिलं जो अपने स्वाद से चलित न हुआ हो, अबुक्कतं रसादि से अतिक्रान्त न हुआ हो. अपरिणयं-वर्णादि परिणत (परिवर्तन) न हुआ हो, अविद्धत्यं = विरोधी शस्त्र द्वारा जिसके जीव विध्वस्त न हुए हों, अफासुयं =सचित्त, आयामंचावलों का ओसामण मांड, सोवीर-कांजी या कांजी का पानी, सुद्धवियर्ड -- शुद्ध उष्ण प्रासुक जल, पडिग्गहेण = पात्र से. उििचयाणं = उलीच कर, ओत्तियाणं = उलट या उडेलकर, अणंतरहियाए पुढबीए-बीच में व्यवधान से रहित पृथ्वी पर, उद्घ१ =निकालकर, सकसारण मत्तेण:- सचित्त पृथ्वी आदि के अवयव से संलिष्ट पात्र (वर्तन) से, 'सोतोदएण सभोएत्ता'=शीतल (सचित्त) उदक के साथ मिलाकर / ' 372. एतं खलु तस्स भिक्ख स्स वा 2 सामग्गियं / यह (आहार-पानी की गवेषणा का विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनचारित्रादि आचार सम्बन्धी) समग्रता है। // सप्तम उद्देशक समाप्त / अट्ठमो उद्देसओ अष्टम उद्देशक अग्राह्य-पानक निषेध 373. से भिक्ख वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण पाणगजातं जाणेज्जा, तंजहा—अंबपाणगं वा अंबाडगपाणगं वा कविट्ठपाणगं वा मातुलुंगपाणगं वा मुद्दियापाणगं वा दालिमपाणगं वा खज्जूरपाणगं वा णालिएरपाणगं वा करीरपाणगं वा कोलपाणगं वा आमलगपाणगं वा चिचापाणगं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं पाणगजातं सअट्टियं सकणुयं सबीयगं अस्संजए 1. आटे का धोवन भी 'संसेइमं कहलाता है। -दसवै० पृ० 5 उ. 1 2. टीका पत्र 346 / इसका विवेचन प्रथम उद्देशक के सूत्र 334 के अनुसार समझ लेना चाहिए। 4. तुलना कीजिए-दशवकालिक अ०५, उ०२, गा० 23 / 5. इसके स्थान पर 'मातुलंग'-'मालिंग' पाठान्तर मिलता है। 6. सबीयगं के स्थान पर साणुबीयक पाठ मानकर चूर्णिकार ने अर्थ किया है.---'अनु =स्तोके, छो (यो) वेण बीतेण सहसाणुबीयकं ।'-अणु का अर्थ हैं थोड़ा। थोड़े-से बीजों के सहित 'साणुबीजक' कहलाता है। 3. रयत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org