Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 327-330 साधु या भिखारी या याचक होते हैं। और अपारिहारिक से मतलब है जो शिथिलाचारी हैं, साध्वाचार में लगे दोषों की विशुद्धि न करने वाले पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छंद आदि साधु हैं। पारिहारिक का अर्थ है---आहार के दोषों का परिहार करने वाला शुद्ध आचार वाला साधु / ' भिक्षु और पारिहारिक साधु का सम्पर्क अन्यतीर्थिक, परपिण्डोपजीवी गृहस्थ एवं अपारिहारिक के साथ पांच माध्यमों से होता है (1) भिक्षा के लिए साथ-साथ प्रवेश-निर्गमन से। (2) स्थण्डिल-भूमि में साथ-साथ प्रवेश-निष्क्रमण से। (3) स्वाध्याय-भूमि में साथ-साथ प्रवेश-निर्गमन से। (4) ग्रामानुग्राम साथ-साथ विचरण करने से (5) आहार के देने-दिलाने से। अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी गृहस्थ के यहाँ प्रवेश-निर्गमन में दोष यह है कि वे आगे-पीछे चलेंगे, तो ईशोधन नहीं करेंगे, उसका दोष, तथा प्रवचन लघता या उनके द्वारा जाति आदि का अभिमान-प्रदर्शन / ये पीछे-पीछे पहुंचेंगे तो अभद्रवृत्ति के दाता को प्रद्वेष जागेगा, दाता आहार का विभाग करके देगा। उससे ऊनोदरी तप या दुर्भिक्ष आदि में थोड़ेसे प्राप्त आहार में प्राण-धारण करना दुलंभ होगा। __ अपारिहारिक के साथ भिक्षा के लिए प्रवेश करने से अनेषणीय भिक्षा ग्रहण करनी होगी या उसका अनुमोदन हो जाएगा। वैसी भिक्षा ग्रहण न करने पर अन्यत्र आहार की दुर्लभता आदि परिस्थित आ सकती है। ___ शौचनिवृत्ति के लिए स्थण्डिलभूमि में साथ-साथ जाने पर प्रासुक जल आदि से गुह्य भाग स्वच्छ करने-न-करने आदि का विवाद खड़ा होगा। स्वाध्याय-भूमि में साथ-साथ जाने पर सैद्धान्तिक विवाद, निरर्थक स्व-प्रशंसा, असहिष्णुता के कारण कलह आदि दोषों की सम्भावना है। ग्रामानुग्राम सहगमन में भी लघुशंका-बड़ीशंका से निवृत्त होने में संकोच होगा। हाजत रोकने से आत्म-विराधना रोगादि की सम्भावना है / यदि मल-मूत्र का उत्सर्ग करना है तो प्रासुक-अप्रासुक जल ग्रहण करने से संयम-विराधना की सम्भावना रहती है। इसी प्रकार अन्यतीथिक आदि को अपने आहार में से देने से दाता को अप्रतीति होगी कि ये तो आहार को ले जाकर बांटते हैं। उनको दिलाने से गृहस्थ के मन में अश्रद्धा पैदा होगी, उन अन्यतीर्थिक आदि की असंयमप्रवृत्ति आदि दोषों का सहभागी भी हो सकता है। ये सब सम्पर्कजनित दोष हैं, जो आगे चलकर सुविहित साधु के सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र की नींव हिला सकते हैं। 1. आचा० टीका पत्रांक 323-324 के आधार पर / 2. भाचा. टीका पत्रांक 323, 324, 325 के आधार पर। 3. आचा. टीका पत्रांक 223-325 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org