Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 36 प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 346 हो, बहुत-मे उड़ने वाले त्रस प्राणी गिर रहे हों तो वह आहार, विहार, एवं विचार के लिए भंडोपकरण साथ ले लेकर गमनागमन की प्रवृत्ति बन्द रखे / ' ___ वृत्तिकार ने स्थविरकल्पिक साधु वर्ग के लिए भी विवेक बताया है--यह समाचारी ही है कि विहार करने वाला साधु गच्छ के अन्तर्गत हो या गच्छनिर्गत हो, उसे ध्यान रखना चाहिए कि यदि वर्षा या धुन्ध पड़ रही हो तो जिनकल्पी बाहर नहीं जाएगा, क्योंकि उसमें छह मास तक मल-मूत्र को रोकने की शक्ति होती है। अन्य साधु कारण विशेष मे (मलव्युत्सर्गार्थ) जाए तो सभी उपकरण लेकर न जाए, यह तात्पर्यार्थ है।* निविद्य-गह-पद 346. से भिक्खू वा 2 से ज्जाई पुणो कुलाई जाणेज्जा, तंजहा-खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा रायवंसढ़ियाणं वा अंतो वा बाहि वा गच्छंताण वा संणिविट्ठाण वा णिमंतेमाणाण वा अणिमंतेमाणाण वा असणं वा 4 लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / 346. भिक्षु एवं भिक्षुणी इन कुलों (घरों) को जाने, जैसे कि चक्रवर्ती आदि क्षत्रियों के कुल, उनसे भिन्न अन्य राजाओं के कुल, कुराजाओं (छोटे राजाओं) के कुल, राज भृत्य 1. टीका पत्र 333 के आधार पर / 2. टीका पत्र 333 के आधार पर / 3. चर्णिकार 'राईण वा' आदि शब्दों की व्याख्या इस प्रकार करते हैं - खतिया-चक्कवट्टी-बलदेव वासुदेव-मंडलियरायाणो, कुरायी-पच्चंतियरायाणो, रायबंसिता--रायवंसप्पभूया ण रायाणो। रायपेसिया=अन्नतरभोइता। अर्थात् - क्षत्रिय चक्रवर्ती, बलदेव. वासुदेव व मांडलिक राजा कराजा=किसी प्रदेश का राजा, ठाकुर आदि। राजवंशिक राजवंश में पैदा हए, राजा के मामा भानजा आदि किंतु राजा नहीं। राजप्रेस्य राजा के भृत्य / 'अंतो वा बाहि वा गच्छंताण वा'--.इत्यादि पाठ के बदले पाठान्तर मिलते हैं--(१) वा संणिविद्वाण वा णिमंतेमाणाण वा (2) वा गच्छंताण वा संणिविद्राण वा णिमंतेमाणाण वा' तथा (3) वा गच्छंताण वा संणिविटाणवा असंणिविद्राण वा णिमंतेमाणाण वा। अर्थ क्रमशः इस प्रकार है(१) घर के अन्दर बैठे हों या बाहर या निमंत्रित किये जाते हों। (2) अन्दर या बाहर जा-आ रहे हों, बैठे हों या निमंत्रित किये जाते हैं, (3) अन्दर या बाहर जा-आ रहे हों, ठहरे हों या न ठहरे हों, या निमंत्रित किये जाते हों। चूर्णिकार ने इस पंक्ति की व्याख्यायों की है- अंतो=अंतो नगरादीणं बहि-णिग्गमणिग्गंताणं, संणिविट्ठाणं-ठियाणं, इतरेसिं गच्छंताणं, मंगलत्थं पासंडाणं साहणं वा दिज्जा, णिमंतेति सयमेव, अणिमं० दुक्कस्स देज्जा, देताणं सयमेव, अदेताणं अण्णो दिज्जा असणं वा 4 चाभे संते णो पडिग्गाहिज्जा / अर्थात्-अंतो-नगरादि के भीतर, बाहि =निगम से निर्गत, संणिविट्ठाणं = स्थित, दूसरे जाते हुओं को, मंगलार्थ-पाषण्डों या साधुओं को देता हो, स्वयमेव निमंत्रण दे, अथवा अनिमंत्रितों को मुश्किल से देता हो, जिनको दिया जाना हो, उन्हें स्वयं देता हो, जिनको न देना हो उन्हें दूसरा देता हो, ऐसे घर में अशनादि आहार मिलने पर भी ग्रहण न करे / मालूम होता है, चूर्णि के अनुसार--अंतो वा बाहिं वा संणिविठ्ठाणं वा असंणिविहाणं वा शिमतेमाचागं वा मणिमंतेमाणाणं वा वेता वा अदेताणं वा असणं वा-यह पाठ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org