Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 230-239 अन्तरंग) गांठे (ग्रन्थियाँ) खुल जाती हैं, (तब मात्र प्रात्मचिन्तन में संलग्न वह मुनि). प्रायुष्य (समाधिमरण) के काल का पारगामी हो जाता है / / 26 / / . विवेचन-भक्तात्यातयान अनशन को पूर्व तयारी-इन गाथानों में इसका विशद वर्णन किया गया है। समाधिमरण के लिए पूर्वोक्त तीन अनशनों में से भक्तप्रत्याख्यानरूप एक अनशन का चुनाव करने के बाद उसकी क्रमश: पूर्व तैयारी की जाती है, जिसकी झांकी सू० 230 से 234 तक में दी गई है। सूत्र 230 से भक्तप्रत्याख्यानरूप अनशन का निरूपण है / यहाँ सविचार भक्तप्रत्याख्यान का प्रसंग है। इसलिए इसमें सभी कार्यक्रम क्रमशः सम्पन्न किये जाते हैं। भक्तप्रत्याख्यान अनसन को पूर्णत: सफल बनाने के लिए अनशन का पूर्ण संकल्प लेने से पूर्व मुख्यतया निम्नोक्त ऋम अपनाना आवश्यक है जिसका निर्देश उक्त गाथाओं में है / वह क्रम इस प्रकार है (1) संलेखना के बाह्य और प्राभ्यन्तर दोनों रूपों को जाने और हेय का त्याग करे / (2) प्रवज्याग्रहण, सूत्रार्थग्रहण-शिक्षा, प्रासेवना-शिक्षा आदि क्रम से चल रहे संयमपालन में शरीर के असमर्थ हो जाने पर शरीर-विमोक्ष का अवसर जाने। (3) समाधिमरण के लिए उद्यत भिक्ष क्रमशः कषाय एवं आहार की संलेखना करे। (4) संलेखना काल में उपस्थित रोग, अातंक, उपद्रव एवं दुर्वचन आदि परीषहों को समभाव से सहन करे। (5) द्वादशवर्षीय संलेखना काल में प्राहार कम करने से समाधि भंग होती हो तो संलेखना क्रम छोड़कर आहार कर ले, यदि आहार करने से समाधि भंग होती हो तो वह आहार का सर्वथा त्याग करके अनशन स्वीकार कर ले / (6) जीवन और मरण में समभाव रखे। (7) अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यस्थ और निर्जरादर्शी रहे। (8) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, समाधि के इन पांच अंगों का अनुसेवन करे / (9) भीतर की रागद्वेषादि ग्रन्थियों और बाहर की शरीरादि से सम्बद्ध प्रवृत्तियों तथा ममता का व्युत्सर्ग करके शुद्ध अध्यात्म की झांकी देखे। (10) निराबाध संलेखना में आकस्मिक विघ्न-बाधा उपस्थित हो तो संलेखना के क्रम को बीच में ही छोड़कर भक्तप्रत्याख्यान अनशन का संकल्प कर ले। (11) विघ्न-बाधा न हो तो संलेखनाकाल पूर्ण होने पर ही भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करे। संलेखना : स्वरूप, प्रकार और विधि-सम्यक् रूप से काय और कषाय का बाह्य और प्राभ्यन्तर का सम्यक लेखन-(कृश) करना सलेखना है। इस दृष्टि से संलेखना दो प्रकार की है-बाह्य और आभ्यन्तर / बाह्य संलेखना शरीर में और पाभ्यन्तर कषायों में होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से भाव संलेखना वह है, जिसमें प्रात्म-संस्कार के अनन्तर उसके 1. प्राचा० शीला० टीकर पत्रांक 289, 290 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org