Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ नवम अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 320-323 किसी प्रकार का ऐसा संकल्प ही करते थे कि “ऐसा सरस स्वादिष्ट आहार मिलेगा, तभी लूगा, अन्यथा नहीं।" आहार-पानी प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का पाप-दोष होने देना, उन्हें जरा भी अभीष्ट नहीं था। अपने लिए ग्राहार की गवेषणा में जाते समय रास्ते में किमी भी प्राणी के आहार में अन्तराय न लगे, किसी का भी वृत्तिच्छेद न हो, किसी को भी अप्रतीति (भय) या अप्रीति (द्वष) उत्पन्न न हो, इस बात की वे पूरी सावधानी रखते थे / ' . 'अग्णगिलायं'--शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने पर्युषित-वासी भोजन किया है। भगवत सूत्र की टीका में 'अन्नग्लायक' शब्द की व्याख्या की गई है जो अन्न के बिना ग्लान हो जाता है, वह अन्नग्लायक कहलाता है। क्षुधातुर होने के कारण वह प्रात: होते ही जैसा भी, जो कुछ बासी, ठंडा भोजन मिलता है, उसे खा लेता है। यद्यपि भगवान क्षुधातुर स्थिति में नहीं होते थे, किन्तु ध्यान आदि में विघ्न न आये तथा समभाव साधना की दृष्टि से समय पर जैसा भी बासी-ठण्डा भोजन मिल जाता, बिना स्वाद लिए उसका सेवन कर लेते थे। 'स इयं'-आदि शम्बों का अर्थ-'सूइयं' के दो अर्थ हैं—दही यादि से गीले किए हुए भात अथवा दही के साथ भात मिलाकर करबा बनाया हुआ / सुक्कं = सूखा, सीयं पिडं ठण्डा भोजन, पुराण कुम्मास = बहुत दिनों से सिजोया हुआ उड़द, बुक्कसं -- पुराने धान का चावल, पुराना सत्त पिण्ड, अथवा बहुत दिनों का पड़ा हुआ गोरस, या गेहूँ का मांडा, पुलागं = जौ का दलिया / __ ऐसा रूखा-सूखा जैसा भी भोजन प्राप्त होता, वह पर्याप्त और अच्छा न मिलता तो भी भगवान राग-द्वेष रहित होकर उसका सेवन करते थे, यदि वह निर्दोष होता। भगवान की ध्यान-परायणता-भगवान शरीर की आवश्यकताएँ होती तो उन्हें सहजभाव से पूर्ण कर लेते और शीघ्र ही ध्यान-साधना में संलग्न हो जाते। वे गोदुह, वीरासन, उत्कट ग्रादि प्रासनों में स्थित होकर मख को टेढा या भींचकर विकृत किए बिना ध्यान करते थे। उनके ध्यान के आलम्बन मुख्यतया ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में स्थित जीव-अजीव आदि पदार्थ होते थे। इस पंक्ति की मुख्यतया पाँच व्याख्याएँ फलित होती हैं ऊर्ध्वलोक = आकाशदर्शन, अधोलोक = भूगर्भदर्शन और मध्यलोक = तिर्यग्भित्तिदर्शन / इन तीनों लोकों में विद्यमान तत्त्वों का भगवान ध्यान करते थे। लोकचिन्तन क्रमश: चिन्तन-उत्साह, चिन्तन-पराक्रम और चिन्तन-चेष्टा का पालम्बन होता है / 1. आचारांग वृत्ति मूलपाठ पत्रांक 313. के आधार पर। .... 2. (क) भगवती सूत्र वृत्ति पत्र 705 / (ख) प्राचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण सूत्र 312 / 3. (क)प्राचा० शीला 0 टोका पत्रांक 313 / (ख) प्राचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण सूत्र 319 / 4. (क) आचा० शोला० टीका पत्रांक 315 / (ख) प्राचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण सूत्र 320 / देखिए आवश्यक' चूणि पृ० 324 में त्रिलोकध्यान का स्वरूप - 'उड्ढे अहेयं तिरियं च, सम्वलोए मायति समितं / उड्ढलोए जे महे वि तिरिए वि, जेहि वा कम्मादारणेहिं उड्ढं गमति, एवं अहे तिरियं च / अहे संसार संसारहेउंच कम्मविवागं च ज्ञाति, तं मोक्षं मोक्खहेडं मोक्खसुहं च ज्झायति, देच्छमाणो आयसाहिं परसममाहिं च अहवा नाणादिसमाहिं / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org