Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ नवम अध्ययन : चतुर्ग उदेशक : सूत्र 320.323 को जरा-सा भी त्रास न हो, इसलिए हिंसा न करते हुए आहार को गवेषणा करते थे / / 103-104-105 / / 319. भोजन व्यंजनसहित हो या व्यंजन रहित सूखा हो, अथवा ठंडा-वासी हो, या पुराना (कई दिनों का पकाया हुआ) उड़द हो, पुराने धान का प्रोदन हो या पुराना सत्त हो, या जौ से बना हया ग्राहार हो, पर्याप्त एवं अच्छे आहार के मिलने या न मिलने पर इन सब स्थितियों में सयमनिष्ठ भगवान राग-द्वेष नहीं करते थे / / 106 // ध्यान-साधना 320. अवि झाति से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं / उड्ढे अहे य तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे / / 107 // 321. अकसायी विगतगेही य सह-रूवेसुऽमुच्छितेसाती। छउमत्थे विप्परक्कममाणे न पमा सई पि कुम्वित्था / / 108 // 322. सयमेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए / अभिणिवुड अमाइल्ले आवकहं भगवं समितासी / / 109 / / 323. एस विही अणुक्कतो माहणेण मतीमता / / बहुसो अपडिण्णेणं भगवया एवं रोयंति ॥११०॥त्ति बेमि / चिउत्थो उद्देसओ समत्तो।। 327. भगवान महावीर उकड प्रादि यथोचित प्रासनों में स्थित और स्थिरचित्त होकर ध्यान करते थे। ऊँचे, नीचे और तिरछे लोक में स्थित जीवादि पदार्थों के द्रव्य-पर्याय-नित्यानित्यत्व को ध्यान का विषय बनाते थे / वे असम्बद्ध बातों के संकल्प से दूर रहकर आत्म-समाधि में हो केन्द्रित रहते थे / / 107 / / / 321. भगवान क्रोधादि कषायों को शान्त करके, प्रासक्ति को त्याग कर, शब्द और रूप के प्रति अमूच्छित रहकर ध्यान करते थे। छद्मस्थ (ज्ञानावरणीयादि घातिकर्म चतुष्टययुक्त) अवस्था में सदमुष्ठान में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया / / 10 / / 1. उडळ अहे य तिरियं च' के प्रागे चर्णिकार ने 'लोए शायती (पेहमाणे) पाठान्तर माना है। अर्थ होता है -- ऊर्बलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक का (प्रेक्षण करते हुए) ध्यान करते थे। 2. इसका अर्थ चूर्णिकार यों करते हैं—“सद्दादिरहि य अमुच्छितो भाती झायति--अर्थात् -- शब्दादि विषयों में अमूच्छित अनासक्त होकर भगवान ध्यान करते थे। 3. चूणिकार ने इसके बदले 'छउमत्थे विप्परकम्मा ण पमायं....' पाठान्तर मान्य करके व्याख्या की है "छउमत्थकाले विहरतेण भगवता जयंतेण घटतेण परक्कतेण ण कयाइ पमातो कयतो / अविसद्दा गरि एक्कमि एक्कं अंतोमुहुत्त अट्ठियगामे / " छद्मस्थकाल में यतनापूर्वक विहार करते हुए या अन्य संयम सम्बन्धी क्रियानों में कभी प्रमाद नहीं किया था। अपि शब्द से एक दिन एक अन्तमुहूर्त तक अस्थिकग्राम में (निद्रा) प्रमाद किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org