Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 328 भाचारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कम्य स्पर्श, शीत स्पर्श, भयंकर गर्मी का स्पर्श, डांस और मच्छरों का दंश; इन नाना प्रकार के दुःखद स्पर्टी (परीषहों) को सदा सम्यक् प्रकार से सहन करते थे / / 8 / / 294. दुर्गम लाढ़ देश के वज्र (वीर) भूमि और सुम्ह (शुभ्र या सिंह) भूमि नामक प्रदेश में भगवान ने विचरण किया था। वहां उन्होंने बहुत ही तुच्छ (ऊबड़खाबड़) बासस्थानों ओर कठिन प्रासनों का सेवन किया था / / 81 // 295. लाढ़ देश के क्षेत्र में भगवान ने अनेक उपसर्ग सहे / वहां के बहुत से अनार्य लोग भगवान पर डण्डों आदि से प्रहार करते थे; (उस देश के लोग ही रूखे थे, अतः) भोजन भी प्राय: रूखा-रूखा ही मिलता था / वहाँ के शिकारी कुत्ते उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे / / 2 / / __ 296. कुत्ते काटने लगते या भौंकते तो बहुत थोड़े-से लोग उन काटते हुए कुत्तों को रोकते, (अधिकांश लोग तो) इस श्रमण को कुने काटें, इस नीयत से कुत्तों को बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे / / 3 / / 297. वहाँ ऐसे स्वभाव वाले बहुत से लोग थे, उस जनपद में भगवान् ने (छ: मास तक) पुनः पुन: विचरण किया / उस वज्र (वीर) भूमि के बहुत-से लोग रूक्षभोजी होने के कारण कठोर स्वभाव वाले थे। उस जनपद में दूसरे श्रमण अपने (शरीर प्रमाण) लाठी और (शरीर से चार अंगुल लम्बी) नालिका लेकर विहार करते थे / / 84 // 298. इस प्रकार से वहां विजरण करने वाले श्रमणों को भी पहले कुत्त * (टांग आदि से) पकड़ लेते, और इधर-उधर काट खाते या नोंच डालते / सचमुच उस लाढ़ देश में विचरण करना बहुत ही दुष्कर था // 5 // 299. अनगार भगवान महावीर प्राणियों के प्रति मन-वचन-काया से होने वाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करके (विचरण करते थे) अतः भगवान उन ग्राम्यजनों के कांटों के समान तीखे वचनों को (निर्जरा का हेतु समझकर सहन) करते थे // 6 // 300. हाथी जैसे युद्ध के मोर्चे पर (शस्त्र से विद्ध होने पर भी पीछे नहीं हटता, वैरी को जीतकर--) युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान महावीर उम लाढ़ देश में परीषह-सेना को जीतकर पारगामी हुए। कभी-कभी लाढ़ देश में उन्हें (गाँव में स्थान नहीं मिलने पर) अरण्य में रहना पड़ा / / 7 / / 301. भगवान नियत वासस्थान या प्राहार की प्रतिज्ञा नहीं करते थे। किन्तु आवश्यकतावश निबास या आहार के लिए वे ग्राम की ओर जाते थे। वे ग्राम के निकट पहुँचते, न पहुँचते तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से निकलकर भगवान को रोक लेते. उन पर प्रहार करते और कहते-"यहाँ से आगे कहीं दूर चले जायो" // 8 // 302. उस लाढ़ देश में (गाँव से बाहर ठहरे हुए भगवान को) बहुत से लोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org