Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आचारांप सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध लिए ही क्रोधादि कषाय रहित अनन्तज्ञानादि गुणों से सम्पन्न परमात्म-पद में स्थित होकर रागादि बिकलों को कृश किया जाय और उस भाव-संलेखना की सहायता के लिए कायक्लेश रूप अनुष्ठान भोजनादि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्यलेखना है।' काल की अपेक्षा से संलेखना तीन प्रकार की होती है-जधन्या, मध्यमा और उत्कृष्टा। जधन्या सलेखना 12 पक्ष की, मध्यमा 12 मास की और उत्कृष्टा 12 वर्ष की होती है। द्वादशवर्षीय लेखना की विधि इस प्रकार है-प्रथम चार वर्ष तक कभी उपवास, कभी बैला, कभी तेला, चोला या पंचोला, इस प्रकार विचित्र तप करता है, पारणे के दिन उद्गमादि दोषों से रहित शुद्ध पाहार करता है। तत्पश्चात् फिर चार वर्ष तक उसी तरह विचित्र तप करता है, पारणा के दिन विगय रहित (रस रहित) आहार लेता है। उसके बाद दो वर्ष तक एकान्तर तप करता है, पारणा के दिन प्रायम्बिल तप करता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम 6 मास तक उपवास या बेला तप करता है, द्वितीय 6 मास में विकृष्ट तप-तेला-चोला अादि करता है। पारणे में कुछ ऊनोदरीयुक्त आयम्बिल करता है। उसके पश्चात 123 वर्ष में कोटी-सहित लगातार प्रायम्बिल करता है, पारणा के दिन आयंबिल किया जाना है। बारहवें वर्ष में साधक भोजन में प्रतिदिन एक-एक ग्रास को कम करते-करते एक सिक्थ भोजन पर आ जाता है / बारहवें वर्ष के अस में वह अर्धमासिक या मासिक अनशन या भक्तप्रत्याख्यान आदि कर लेता है। दिगम्बर. परम्परा में भी पाहार को क्रमशः कम करने के लिए उपवास, प्राचाम्ल, वृत्ति-क्षेप, फिर रसजित आदि विविध तप करके शरीर सलेखना करने का विधान है। यदि प्रायू और शरीर-शक्ति पर्याप्त हो तो साधक बारह भिक्ष प्रतिमाएं स्वीकार करके शरीर को कृश करता है। शरीर-लिखना के साथ राग-द्वेष-कषायादि रूप परिणामों की विशुद्धि अनिवार्य है, अन्यथा केवल शरीर को कृश करने से संलेखना का उद्देश्य पूर्ण महीं होता। संलेखना के पांच अतिवारों से सावधान--संलेखना क्रम में जीवन और मरण की आकांक्षा तो बिलकुल हो छोड़ देनी चाहिए, यानी 'मैं अधिक जीऊँ या शीघ्र ही मेरी मृत्यु हो जाय तो इस रोगादि से पिंड छूटे', ऐसा विकल्प मन में नहीं उठना चाहिए। काम-भोगों को तथा इहलोक-परलोक सम्बन्धो कोई भी आकांक्षा या निदान नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सलेखना के 5 अतिचारों से सावधान रहना चाहिए। 1. (क) सर्वार्थसिद्धि 22 / 363 / (ख) भगवी आराधना मूल 2061423 (ग) पंचास्तिकाय ता० ब० 173 / 253.17 // 2. अभिधान राजेन्द्र कोष भा० 7 पृ० 218, नि०, 60 व०, प्रा० 0 / 3. भगवती आराधना मू० 246 से 241, 257 से 259, सारधर्मामृत मा२३॥ 4. सू. 232 में इसका उल्लेख है, प्राचा० शीला टीका पत्रांक 289 / 5. संदेखना के 5 प्रतिचार ---इह मोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग जीविताशंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रोग और कामभोगाशमाप्रवन / - प्रावश्यक अ. 5 हारि० वृत्ति पृ. 838 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org