Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 254-257 इस स्पष्टीकरण को आगम का पाठ भी पुष्ट करता है, जैसे—मैं कहता है, जो अरि. हन्त भगवन्त अतीत में हो चुके हैं, वर्तमान में हैं, और जो भविष्य में होंगे, उन्हें सोपधिक (धर्मोपकरणयुक्त) धर्म को बताना होता है, इस दृष्टि से तीर्थधर्म के लिए यह अनुमिता है। इसीलिए तीर्थकर एक देवदूष्य वस्त्र लेकर प्रवजित हुए हैं, प्रश्नजित होते हैं एवं प्रबजित होंगे।" एक प्राचार्य ने कहा भी है--- गरीयस्त्वात् सचेलस्य धर्मस्यान्यस्तथागतः / शिष्यस्य प्रत्ययाचंच वस्त्र वन न लज्जया।। -सचेलक धर्म की महत्ता होने से तथा शिष्यों को प्रतीति कराने हेतु ही अन्य तीर्थंकरों ने वस्त्र धारण किया था, लज्जादि निवारण हेतु नहीं / चूणिकार अनुमिता शब्द के दो अर्थ करते हैं--(१) गतानुगतिकता और (2) अनुकालधर्म। पहला अर्थ तो स्पष्ट है। दूसरे का अभिप्राय है-शिष्यों की रुचि, शक्ति, सहिष्णुता, देश, काल, पात्रता प्रादि देखकर तीर्थंकरों को भविष्य में वस्त्र-पात्रादि उपकरण सहित धर्माचरण का उपदेश देना होता है / इसी को अनुमिता कहते हैं / पाली शब्द कोष में 'अनु धम्मता' शब्द मिलता है, जिसका अर्थ होता है-धर्मसम्मतता, धर्म के अनुरूप / इस दृष्टि से भी 'पूर्व तीर्थंकर पारित धर्म के अनुरूप' अर्थ संगत होता है / भगवान महावीर के द्वारा वस्त्र-त्याग-मूल पाठ में तो यहाँ इतनी-सी संक्षिप्त झांकी दी है कि 13 महीने तक उस वस्त्र को नहीं छोड़ा, बाद में उस वस्त्र को छोड़कर वे अचेलक हो गये / टीकाकार भी इससे अधिक कुछ नहीं कहते किन्तु पश्चाद्वर्ती महावोर-चरित्र के लेखक ने वस्त्र के सम्बन्ध में एक कथा कही है-ज्ञातखण्डवन से ज्यों ही महावीर आगे बढ़े कि दरिद्रता से पीड़ित सोम नाम का ब्राह्मण कातर स्वर में चरणों से लिपट कर याचना करने लगा। परम कारुणिक उदारचेता प्रभु ने उस देवदूष्य का एक पट उस ब्राह्मण के हाथ में थमा दिया। किन्तु रफूगर ने जब उसका आधा पट और ले आने पर पूर्ण शाल तैयार कर देने को कहा तो ब्राह्मण लालसावश पुनः भगवान महावीर के पीछे दौड़ा, लगातार 13 मास तक वह उनके पीछे-पीछे घूमता रहा / एक दिन वह वस्त्र किसी झाड़ी के काँटों में उलझकर स्वत: गिर पड़ा। महावीर आगे बढ़ गये, उन्होंने पीछे मुड़कर भी न देखा / वे वस्त्र का विसर्जन कर चुके थे। कहते हैं ब्राह्मण उसी वस्त्र को झाड़ी से निकाल कर ले आया और रफू करा कर महाराज नन्दिवद्धन को उसने लाख दीनार में बेच दिया / 5 1. "से बेमि जे य अईया, जे य पटुप्पाना, जे य आगमेस्सा भरहंता भगवतो जे य पध्वयंति जे अ पन्ध इस्संति सम्वे ते सोवहिधम्मो देसियो त्ति कटटु तित्वधम्मयाए एसा अणुधम्मिमत्ति एग देवदूसमायाए पध्वइंसु वा पब्वयंति वा पव्वइस्संति व ति।" -प्राचारांग टीका पत्रांक 301 // 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 301 / 3. आचारांग चूर्णि / 4. पाली शब्दकोष / 5. इस घटना का वर्णन देखिये- (अ) त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित 10/3 (ब) महाबीरचरियं (गुणचन्द्र) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org