Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 228 287 अणपविसित्ता गाम वा जाव' रायहामि वा तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता से तमायाए एगतमवक्कमेज्जा एगंतमवक्कमेत्ता अप्पडे जाच तगाइं संथरेज्जा, [तणाई संथरेत्ता] एस्थ वि समए कायं च जोगं च इरियं च पच्चवखाएज्जा। तं सच्चं सच्चवादी ओए तिष्णे छिष्णकहकहे आतीत?' अणातीते चेच्चाण भेउरं कायं संविहुणिय विरुवरूने परोसहुवसग्गे अस्सि विसंभणताए भेरवमणुचिण्णे / तत्थावि तस्स कालपरियाए / से तत्थ वियंतिकारए। इन्चेतं विमोहायतपं हितं सुहं खमं हिस्सेसं आणुगामियं ति बेमि / ॥सत्तमो उद्देसओ समतो॥ 228. (शरीर विमोक्ष : संलेखना सहित प्रायोपगमन अनशन के रूप में)-जिस भिक्ष के मन में यह अध्यवसाय होता है कि मैं वास्तव में इस समय (ग्रावश्यक क्रिया करने के लिए) इस (अत्यन्त जीर्ण एवं अशक्त) शरीर को क्रमशः वहन करने में ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूँ। वह भिक्षु क्रमशः पाहार का संक्षेप करे / आहार को क्रमशः घटाता हुमा कषायों को भी कृश करे। यों करता हया समाधिपूर्ण लेश्या--(अन्तःकरण की वृत्ति) वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय, दोनों ओर से कृश बना हुया वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उस्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले। ___ इस प्रकार संलेखना करने वाला वह भिक्षु (शरीर में थोड़ी-सी शक्ति रहते ही) ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, प्राकर (खान), आश्रम, सन्निवेश (मुहल्ला या एक जाति के लोगों को बस्ती), निगम या राजधानी में प्रवेश करके (सर्वप्रथम) घास की याचना करे / जो घास प्राप्त हुआ हो, उसे लेकर ग्राम आदि के बाहर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जहाँ कीड़ों के अंडे, जीव-जन्तु, बोज, हरित, प्रोस, काई, उदक, चींटियों के बिल, फफुदी, गीली मिट्टी या दल-दल या मकड़ी के जाले न हों, ऐसे स्थान को बार-बार प्रतिलेखन (निरीक्षण) कर फिर उसका कई बार प्रमार्जन (सफाई) करके घास का विछौना करे। घास का बिछौना बिछाकर इसी समय शरीर, शरीर की प्रवृत्ति और गमनागमन आदि ईर्या का प्रत्याख्यान (त्याग) करे ( इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन करके शरीर विमोक्ष करे)। यह (प्रायोपगमन अनशन) सत्य है। इसे सत्यवादी (प्रतिज्ञा पर अन्त तक . 1-2. 'जाव' शब्द के अन्तर्गत 224 सूत्रानुसार यथायोग्य पाठ सरम लेना चाहिए / 3. इसके बदले चणि में पाठान्तर है-'धारगं संपरेड संशरणं संपरेत्ता ..' अर्थात् संस्तारक (बिछौना) बिछा लेता है, संस्तारक बिछा कर...। 4. 'पश्चखाएज्जा' के बदले 'पच्चदखाएज्ज' शब्द मानकर चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या की है___"पाओवगमणं भणितं समे विसमे वा पातको विव मह पटिओ। गागज्जुणा तु कमिव अवेढे।" 5. 'आतीत?' के बदले आइयडे, अतीठे पाठ मिलते हैं, अर्थ प्राय: समान हैं। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org