Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ माष्टम अध्ययन ; षष्ठ उद्देशक : सूत्र 24 पारगामी अथवा परिस्थितियों से मप्रभावित, [अनशन स्थित मुनि इंगितमरण की साधना को अंगीकार करता है। __वह भिक्षु प्रतिक्षण बिनाशशील शरीर को छोड़कर नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके शरीर और आत्मा पृथक-पृथक हैं।) इस (सर्वज्ञ अरूपित भेदविज्ञान) में पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर (भैरव) अनशन कर (शास्त्रविधि के अनुसार) अनुपालन करे। तब ऐसा (रोबादि आतंक के कारण इंगितमरण स्वीकार करने पर भी . उसको वह काल-मृत्यु (सहज मरण) होती है। उस मृत्यु से वह अन्तकिया (पूर्षतः कर्म-:, :: क्षय) करने वाला भी हो सकता है। इस प्रकार यह (इंगितमरण के रूप में शरीर-विमोक्ष) मोहमुक्त भिक्षुओं को आयतन (प्राश्रय) हितकर, सुखकर, शमारूप या कालोपयुक्त, निःश्रेयस्कर पौर भवान्तर में साथ चलने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--शरीर-विमोक्ष के हेतु इंगतमरण साधना--इस अध्ययन के चौथे उद्देशक में विहायोमरण पांचवें में भक्तप्रत्याख्यान और छठे में इंगितमरण का विधान शरीर-विमोक्ष के सन्दर्भ में किया गया है। इसकी पूर्व तैयारी के रूप में शास्त्रकार ने उपधि-विमोक्ष, वस्त्र विमोक्ष, पाहार-विमोक्ष, स्वाद-विमोक्ष, सहाय-विमोक्ष प्रादि विविध पहलुओं से शरीरविमोक्ष का अभ्यास करने का निर्देश किया है। इस सूत्र (224) के पूर्वार्ध में संलेखना का विधिविधान बताया है। संलेखना कब और कैसे ?--संलेखना का अवसर कब पाता है ? इस सम्बन्ध में बृत्तिकार सूत्रपाठानुसार स्पष्टीकरण करते हैं (1) रूखा-सूखा नीरस आहार लेने से, या तपस्या में शरीर अत्यन्त ग्लान हो गया हो। (2) रोग से पीड़ित हो गया हो। (3) आवश्यक क्रिया करने में अत्यन्त अक्षम हो गया हो। (4) उठने-बैठने, करवट बदलने मादि नित्यकियाएँ करने में भी अशक्त हो गया हो। इस प्रकार शरीर अत्यन्त ग्लान हो जाए तभी भिक्षु को त्रिविध समाधिमरण में से अपनी योग्यता, क्षमता और शक्ति के अनुसार किसी एक का चयन करके उसकी तैयारी के लिए सर्वप्रथम संलेखना करनी चाहिए। संलेखना के मुख्य अंग- इसके तीन अंग बताए हैं(१) आहार का क्रमश: संक्षेप / (2) कषायों का अल्पीकरण एवं उपशमन और (3) शरीर को समाधिस्थ, शान्त एवं स्थिर रखने का अभ्यास / साधक इसी क्रम का अनुसरण करता है।" 1. आचा० शीला. पत्रांक 284 // 2. प्राचा. शीलाहीका पत्रांक 284 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org