Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 276 . माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्ध सिवाय और कोई नहीं है / ऐसा समझकर रोगादि परीषहों के समय दूसरे की शरण से निरपेक्ष रहकर समभाव से सहन करे / ' स्वाद-परित्याग-प्रकल्प 223. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा असणं वा 42 आहारेमाणे णो वामातो हणुयातो वाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे, दाहिणातो वा हणुयातो कामं हणुयं णो संचारेज्जा आसामाणे / से अणासादमाणे लावियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति / जहेयं भगवता पवेदि तमेव अभिसमेन्वा सम्बतो सम्बयाए सम्मतमेव सम भजाणिया। 223. वह भिक्ष या भिक्षुणी अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य का आहार करते समय (ग्रास का) आस्वाद लेते हुए बाए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए; (इसी प्रकार) आस्वाद लेते हुए दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए। .. वह अनास्वाद वृत्ति से (पदार्थों का स्वाद न लेते हुए) (इस स्वाद-विमोक्ष में) लाघव का समग्र चिन्तन करते हुए (पाहार करे)। (स्वाद-विमोक्ष से) वह (अवमौदर्य, वृत्तिसंक्षेप एवं कायक्लेश) तप का सहज लाभ प्राप्त कर लेता है। भगवान् ने जिस रूप में स्वाद-विमोक्ष का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को जाने और सम्यक् रूप से परिपालन करे / ... विवेचन आहार में अस्वादवृत्ति-भिक्षु शरीर से धर्माचरण एवं तप-संयम की आराधना के लिए आहार करता है, शरीर को पुष्ट करने, उसे सुकुमार, विलासी एवं स्वादलोलुप बनाने की उसकी दृष्टि नहीं होती। क्योंकि उसे तो शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों पर से आसक्ति या मोह का सर्वथा परित्याग करना है। यदि वह शरीर निर्वाह के लिए यथोचित आहार में स्वाद लेने लगेगा तो मोह पुन: उसे अपनी ओर खींच लेगा। इसी स्वाद-विमोक्ष का तत्व शास्त्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी बताया गया है कि जिह्वा को वश में करने वाला अनासक्त 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 283 / / 2. यहाँ 'वा 4' के अन्.गंत 199 सूत्रानुसार समग्र पाठ समझ लें। 3 चूणि में संचारेज्जा' के बदले 'साहरेज्जा' पाठ है / तात्पयं वही है। 4. यहाँ 'आसाएमाणे' के बदले 'आठायमाणे' और आगे 'अणाढायमाणे' पाठ चूगि कार ने माना है, अर्थ . किया है-पाढा णाम श्रायरो "अमणुगणे वा अणाढायमाणे""तं दुग्गंधं वा णो वामातो दाहिणं हणुयं साहरेज्जा अणाढायमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ को वाम हणुयं साहरेज्जा।"--भावार्थ यह है कि वह "मनोज्ञ वस्तु हो तो आदर-रुचिपूर्वक और अमनोज्ञ दुर्गन्धयुक्त वस्तु हो तो अनादर-- अरुचिपूर्वक बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में या दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए। 5. प्राचारांग (पू० प्रा० आत्माराम जी म. कृत टीका) पृ० 597 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org