Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 214 आधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीतफासा फुसंति उफासा फसंति. वंस-मसगफासा फसंति, एगतरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अषियासेति अचेले लाघवं. आगमाणे। तवे से अभिसमण्णागए भवति / जहेतं भगवता पवेदितं। तमेव अभिसमेचा सम्वतो. सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया। एवं तेसि महावोराणं चिरराइं पुवाई वासाइं रीयमाणाणं दवियाणं पास अधियासियं / 188, आगतपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति पयणुए य मससोगिए। विस्सेणि कटु परिणाय एस तिण्णे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि / 187. सतत सु-आख्यात (सम्यक् प्रकार से कथित) धर्म वाला विधूतकल्पी (प्राचार का सम्यक् पालन करने वाला) बह मुनि अादान (मर्यादा से अधिक वस्त्रादि) का त्याग कर देता है। जो भिक्षु अचेलक रहता है, इस भिक्षु को ऐसी चिन्ता (विकल्प) उत्पन्न नहीं होती कि मेरा वस्त्र सब तरह से जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूंगा, फटे वस्त्र को सीने के लिए धागे (डोरे) की याचना करूंगा, फिर सूई की याचना करूंगा, फिर उस वस्त्र को साँधूगा, उसे सीऊंगा, छाटा है, इसलिए दूसरा टुकड़ा जोड़कर बड़ा बनाऊँगा; बड़ा है, इसलिए फाड़कर छोटा बनाऊँगा, फिर उसे पहनूंगा और शरीर को ढकगा। __ अथवा अचेलत्व-साधना में पराक्रम करते हुए निर्वस्त्र मुनि को बार-बार तिनकों (घास के तृणों) का स्पर्श, सर्दी और गर्मी का स्पर्श तथा डांस और मच्छरों का स्पर्श पीड़ित करता है। 1. चूणि में इसके बदले पाठ है-'सावियं आगमेमाले' इसका अर्थ नागार्जुनसम्मत अधिक पाठ मानकर किया गया है-''एवं खुल से उवगरणलाघवियं तवं कम्मक्खयकरणं करेइ,"-इस प्रकार वह मुनि ___ उपकरण लाविक (उपकरण-अवमौदर्य) कर्मक्षयकारक तप करता है। 2. चूणि में नागार्जुन सम्मत अधिक पाठ दिया गया हैं---'सव्वं सब्वं व (सम्वत्येव ?) सम्वकालं पि . सव्वेहि .'---सबको सर्वथा सर्वकाल में, सर्वात्मना "जानकर / 3. 'समरामेव समभिजाणित्ता' पाठ मानकर चूणि में अर्थ किया है—पसस्थो भावो सम्मत्त सम्म अभि जाणित्ता--समभिजाणित्ता, महवा समभावो सम्मत्तमिति / “सम्मत्त समभिजाणमागे 'पाराधनो भवति', इति वक्कसेसं ।'--'सम्मत्त' प्रशस्तभाव का नाम है। प्रशस्तभावपूर्वक सम्यक् प्रकार से जान अथवा सम्मत्त का अर्थ समभाव है। 'समभाव को सम्यक् जानता हुआ', आराधक होता है (वाक्यशेष)। 4. 'विरराय' पाठान्तर मानकर चणि ने अर्थ किया है-'चिरराइं मणितं जावज्जीवाए। 5. चूणि में इसका अर्थ इस प्रकार है--आगतं उबलर मिस गाणं पणा"एवं तेसि महावीरागं भागतपजाणाणं जिन्हें अत्यन्त ज्ञान (प्रज्ञान) मागत-उपलब्ध हो गया है, उन अागतप्रज्ञान महावीरों की"। 6. 'परिणाय' का भावार्थ चूर्णि में इस प्रकार है-'एमाए गातु बितियाए पञ्चवखाएसा एक (ज्ञ) परिज्ञा से जानकर, दूसरी (प्रत्याख्यानपरिज्ञा) से प्रत्याख्यानत्याग करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org