Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ अष्टम अध्ययन : चतुर्थ उद्देसक : सूत्र 211-214 ... उस अवसर पर अग्निकाय के प्रारम्भ को भिक्ष अपनी बुद्धि से विचारकर / आगम के द्वारा भलीभाँति जानकर उस गृहस्थ से कहे कि अग्नि का सेवन मेंरे लिए असेवनीय है, (अतः मैं इसका सेवन नहीं कर सकता)।--ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-ग्रामधर्म का आशंका और समाधान-सूत्र 211 में किसी भावुक गृहस्थ की आशंका और समाधान का प्रतिपादन है / कोई भिक्षाजोवी युवक साधु भिक्षाटन कर रहा है, उस समय शरीर पर पूरे वस्त्र न होने के कारण शोत से थर-थर कांपते देख, उसके निकट आकर ऐश्वर्य को गर्मों से युक्त, तरुण नारियों से परिवृत, शीत-स्पर्श का अनुभवी, सुगन्धित पदार्थों से शरीर को सुगन्धित बनाए हुए कोई भावुक गृहस्थ पूछने लगे कि 'आप कांपते क्यों हैं ? क्या आपको ग्राम-धर्म उत्पीड़ित कर रहा है ?' इस प्रकार की शंका प्रस्तुत किए जाने पर साधु उसका अभिप्राय जान लेता है कि इस गृहपति को अपनो गलत समझ के कारण-कामिनियों के अवलोकन की मिथ्या शंका पैदा हो गयी है। अत: मुझे इस शंका का निवारण करना चाहिए / इस अभिप्राय से साधु उसका समाधान करता है-- सीतफास गो खलु "अहिवासेत्तएँ" मैं सर्दी नहीं सहन कर पा रहा हूँ। अपनी कल्पमर्यादा का ज्ञाता साधु अग्निकाय-सेवन को अनाचरणीय बताता है। इस पर कोई भावुक भक्त अग्नि जलाकर साधु के शरीर को उससे तपाने लगे तो साधु उससे साभाषपूर्वक स्पष्टतया अग्नि के सेवन का निषेध कर दे। // तृतीय उद्देशक समाप्त / / चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक उपधि-विमोक्ष 23. जे भिक्खू तिहि वत्थेहि परिसिते पायचउत्थेहि तस्स ण णो एवं भवति–चउत्थं वत्थं जाइस्सामि / 214. से अहेसणिज्जाई वस्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, हो रएज्जा, णो धोतरसाइं वत्थाई पारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेसु, ओमवेलिए। एतं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं / अह पुष एवं जाज्जा 'उवात्तिक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवणे', महापरिजुण्णाई 1. प्राचा० शीला टीका पत्र 275-273 / 2. 'वत्थं धारिस्सामि' पाठान्तर चूणि में है। अर्थ है-~-वस्त्र धारण करूंगा। 3. इसके बदले अहापगहिमाई पाठ है, अर्थ है-यथाप्रगृहीत---जैसा गृहस्थ से लिया है। 4. इसका अर्थ चूणि हे इस प्रकार है- "यो धोएज्ज रएज्ज ति वसाय धातुकद्दमादीहि, धोतरत्तं णाम जं धोवितु पुणोरयति / " ----प्रासुक जल से भी न धोए, न काषायिक धात, कर्दम आदि के रंग के रंगे, न ही धोए हुए वस्त्र को पुनः रंगे।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org