Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 267 अष्टम अध्ययन : चम उद्देशक : सूत्र 211 'बाद प्रत्यन्त ग्लान होने पर या संकट आने पर) भी प्रतिज्ञा भंग न करे, भले ही वह जीवन का उत्सर्य कर दे। लाधव का सब तरह से चिन्तन करता हुआ (पाहारादि क्रमशः विमोक्ष करे। प्राहार-विमोक्ष साधक को अनायास ही तप का लाभ प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने जिस रूप में इस अपहार-विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (इसमें निहित) समत्व या सम्यक्त्व का सेवन करे। इस प्रकार वह भिक्षु तीर्थंकरों द्वारा जिस रूप में धर्म प्ररूपित हुआ है, उसी रूप में सम्यकप से जानता और प्राचरण करता हुना, शान्त विरत और अपने अन्तःकरण की प्रशस्त कात्तियों (लेश्याओं) में अपनी प्रात्मा को सुसमाहित करने वाला होता है / (ग्लान भिक्षु भी ली हुई प्रतिज्ञा का भंग न करते हुए यदि भक्त-प्रत्याख्यान आदि के द्वारा शरीर-परित्याग करता है तो उसकी वह मृत्यु काल-मृत्यु है। समाधिमरण होने पर भिक्षु अन्तक्रिया (सम्पूर्ण कर्मक्षय) करने वाला भी हो सकता है। इस प्रकार यह (सब प्रकार का विमोक्ष) शरीरादि मोह से विमुक्त भिक्षुओं का आयतन-आश्रयरुप है, हितकर हैं, सुखकर हैं, सक्षम (क्षमारूप या कालोचित) है, निःश्रेयस्कर है, और परलोक में भी साथ चलने वाला हैं / - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-भिक्षु को ग्लानता के कारण और कर्तव्य-लान होने का अर्थ है-शरीर को अशक्त, दुर्बल, रोगाक्रान्त एवं जीर्ण-शीर्ण हो जाना / ग्लान होने के मुख्य कारण चूणिकार ने इस प्रकार बताए हैं (1) अपर्याप्त या अपोषक भोजन / (2) अपर्याप्त वस्त्र। (3) निर्वस्त्रता / (4) कई पहरों तक उकड़ आसन से बैठना / (5) उग्र एवं दीर्घ तपस्या / ' शरीर जब रुग्ण या अस्वस्थ (ग्लान हो जाए, हड्डियों को ढोचा मात्र रह जाएं, उठतेबैठते समय पीड़ा हो शरीर में रक्त और मांस अत्यन्त कम हो जाए, स्वयं कार्य करने की, धर्मक्रिया करने की शक्ति भी क्षीण हो जाए, तब उस भिक्ष को समाधिमरण की; संल्लेखनी की तैयारी प्रारम्भ कर देनी चाहिए / छह प्रकार की प्रतिज्ञाएं -इस सूत्र में परिहारविशुद्धिक यो यथालन्दिकभिक्षु द्वारा ग्रहण की जाने वाली छह प्रतिज्ञापों का निरूपण है। इन्हें शास्त्रीय भाषा में प्रकल्प (पगप्पे) 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 281, (ख)पाचारांग चूर्णि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org