Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पष्ठ अध्ययन : चतुर्ष उद्देशक : सूत्र 192-115 229 चिन्तन और कथन की अपवृत्तियों का स्पष्टीकरण किया है। अब इन अगले चार सूत्रों में उसकी अनियन्त्रित कायिक चेष्टाओं का वर्णन कर गौरव-त्याय की म्याख्या है। अषयमावे-यह उस अविनीत, गर्वस्फोत और गौरवश्य से ग्रस्त उच्छृखल साधक का विशेषण है। इसका अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है-(गुरु आदि उसे शिक्षा देते हैं-) तू गौरवत्रय से अनुबद्ध होकर पचन-पाचनादि क्रियाओं में प्रवृत्त है और उनमें जो गृहस्थ प्रवृत्त हैं, उनके समक्ष दू कहता है-'इसमें स्या दोष है ? शरीर रहित होकर कोई भी धर्म नहीं पाल सकता। इसलिए धर्म के आधारभूत शरीर को प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए।' ऐसा अधर्मयुक्त कथन करने वाला प्राचारहीन साधक है।' तिहे. 'नितई' शब्द के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं ...(2) विविध प्रकार से हिंसक, (2) संयम-पातक शत्रु या संयम के प्रतिकूल / चूर्णिकार ने इसके दो रूप प्रस्तुत किए हैंवितड्ड और वितंड / जो विविध प्रकार से हिंसक हो वह वितड्ड और जो वितंडाबादी हो वह वितंड। 'उपइए पडिवतमाणे'- इस पद में उन साधकों की दशा का चित्रण है, जो पहले तो. चीर वृत्ति से स्वजन, ज्ञातिजन, परिग्रह आदि को छोड़ कर विरक्त भाव दिखाते हुए प्रजित होते हैं, एक बार तो वे अहिंसक, दान्त और सुबती बन कर लोगों को अत्यन्त प्रभावित कर देते हैं, परन्तु बाद में जब उनकी प्रसिद्धि और प्रशंसा अधिक होने लगती है, पूजा-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, उन्हें सुख-सुविधाएँ भी अधिक मिलने लगती हैं, खान-पान भी स्वादिष्ट, गरिष्ठ मिलता है, चारों ओर मानव-मेदिनी का जमघट और ठाट-बाट लगा रहता है, तब वे इन्द्रियसुखों की ओर झुक जाते हैं, उनका शरीर भी सुकुमार बन जाता है, तब वे संयम में पराक्रम को अपेक्षा से दीन-हीन और तीनों गौरवों के दास बन जाते हैं। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं--'उठकर पुनः गिरते हुए साधकों को तू देख / ' ___ 'समणविन्मते'- यह उस साधक के लिए कहा गया है, जो श्रमण होकर प्रारंभार्थी, इन्द्रिय-विषय-कषायों से पीड़ित, कायर एवं व्रत-विध्वंसक हो गए हैं। यह श्रमण होकर विविध प्रकार से भ्रान्त हो गया -भटक गया है श्रमणधर्म से। चणिकार मे पाठ स्वीकार किया है—'समवितते / उसका अर्थ फलित होता है-जिसके श्रमणत्व में विविध तंत या तंत्र (प्रपंच) हैं, उसे श्रमण- वितन्त या श्रमण-वितंत्र कहते हैं। 'बवितेहि'-द्रव्यिक वह है, जिसके पास द्रव्य हो / द्रब्य का अर्थ धन होता है, साधु के 1. आचा. शीला टीका पत्रोंक 228 / 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 228 / (ख) पाचारांग चूर्णि-आचा० मूल पाठ सूत्र 192 की टिप्पणी। 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 229 के प्राधार पर। 4. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 230 / (ख) प्राचारांग चूणि भाचा० मूल पाठ टिप्पणी 194 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org