Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 179-180 197 (12) भस्मकरोग, (13) कम्पनवात, (14) पीठसी-पंगुता, (15) श्लीपदरोग (हाथीपगा) और 16 मधुमेह; ये सोलह रोग क्रमशः कहे गये हैं। इसके अनन्तर (शूल आदि मरणान्तक) आतंक (दुःसाध्य रोग) और अप्रत्याशित (दुःखों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं / 180. उन (रोगों-अातंकों और अनिष्ट दुःखों से पीड़ित) मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) को जानकर तथा कर्मों के विपाक (फल) का भली-भाँति विचार करके उसके यथातथ्य (यथार्थस्वरूप) को सुनो। (इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताए गये हैं, जो अन्धे होते हैं और अन्धकार में ही रहते हैं। वे प्राणी उसी (नाना दुःखपूर्ण अवस्था) को एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द (ऊँचे-नीचे) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन करते हैं। बुद्धों (तीर्थंकरों) ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है। (और भी अनेक प्रकार के) प्राणी होते हैं, जैसे-वर्षज (वर्षा ऋतु में उत्पन्न होने वाले मेंढ़क आदि) अथवा वासक (भाषालब्धि-सम्पन्न द्वीन्द्रियादि प्राणी), रसज (रस में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जन्तु), अथवा रसग (रसज्ञ संज्ञी जीव), उदक रूप-एकेन्द्रिय अप्कायिक जीव या जल में उत्पन्न होने वाले कृमि या जलचर जीव, माकाशगामी-नभचर पक्षी आदि। वे प्राणी अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं (प्रहार से लेकर प्राणहरण तक करते हैं)। (अतः) तू देख, लोक में महान् भय (दुःखों का महाभय) है। संसार में (कर्मों के कारण) जीव बहुत ही दुःखी हैं। (बहुत-से) मनुष्य कामभोगों में प्रासक्त हैं। (जिजीविषा में प्रासक्त मानव) इस निर्बल (निःसार और स्वतः नष्ट होने वाले) शरीर को सुख देने के लिए अन्य प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं (अथवा कर्मोदयवश अनेक बार बध-विनाश को प्राप्त होते हैं)। वेदना से पीड़ित वह मनुष्य बहुत दुःख पाता है। इसलिए वह अज्ञानी (वेदना के उपशमन के लिए) प्राणियों को कष्ट देता है (अथवा प्राणियों को क्लेश पहुँचाता हुआ वह धृष्ट (बेदर्द) हो जाता है)। इन (पूर्वोक्त) अनेक रोगों को उत्पन्न हुए जानकर (उन रोगों की वेदना से) आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों को) परिताप देते हैं। तू (विशुद्ध विवेकदृष्टि से) देख। ये (प्राणिघातक-चिकित्साविधियाँ कर्मोंदयजनित रोगों का शमन करने में पर्याप्त) समर्थ नहीं हैं। (अत: जीवों को परिताप देने वाली) इन (पापकर्मजनक चिकित्साविधियों) से तुमको दूर रहना चाहिए / मुनिवर ! तू देख ! यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महान् भयरूप है। (इसलिए चिकित्सा के निमित्त भी) किसी प्राणी का अतिपात/वध मत कर / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org