Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 184-185 201 (10) संयमपालन के लिए अचेलक (जिनकल्पी) या अल्पचेलक (स्थविरकल्पी) साधना को स्वीकारने वाला। (11) अनियत-अप्रतिबद्धविहारी। (12) अन्त-प्रान्तभोजी, अवमौदर्य तपः सम्पन्न / (13) अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों का सम्यक् प्रकार से सहन करने वाला / ' अप्पलीयमारणे—इसका अर्थ चर्णिकार ने यों किया है-'जो विषय-कषायादि से दूर रहता है।' लीन का अर्थ है-मग्न या तन्मय, इसलिए अलीन का अर्थ होगा अमग्न या प्रतन्मय / वृत्तिकार ने अप्रलीयमान का अर्थ किया है--'काम-भोगों में या माता-पिता आदि स्वजन-लोक में अनासक्त / 2 ___'सम्बं गेहि परिणाय'-इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-'समस्त गद्धि-भोगाकांक्षा को दुःखरूप (ज्ञपरिज्ञा से) जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका परित्याग करे। चूर्णिकार 'गिद्धि' के स्थान पर 'गन्य' शब्द मानकर इसी प्रकार अर्थ करते हैं / _ 'अतियच्च सम्बो संग-यह वाक्य सर्वसंग-परित्यागरूप धूत का प्राण है। संग का अर्थ है--प्रासक्ति या ममत्वयुक्त सम्बन्ध / - इसका सर्वथा अतिक्रमण करने का मतलब है इससे सर्वथा ऊपर उठना / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव किसी भी प्रकार का प्रतिबन्धात्मक सम्बन्ध संग को उत्तेजित कर सकता है। इसलिए सजीव (माता-पिता, स्त्री-पुत्र प्रादि पूर्व सम्बन्धियों) और निर्जीव (सांसारिक भोगों आदि) पदार्थों के प्रति मासक्ति का सर्वथा था त्याग करना धूतवादी महामुनि के लिए अनिवार्य है। किस भावना का पालम्बन लेकर संग-परित्याग किया जाय?. इसके लिए शास्त्रकार स्वयं कहते हैं-'ण महं अरिप' मेरा कोई नहीं है, मैं (प्रात्मा) अकेला हूँ, इस प्रकार से एकत्वभावना का अनुप्रेक्षण करे। अावश्यकसूत्र में संस्तार पौरुषी के सन्दर्भ में मुनि के लिए प्रसन्नचित्त और दैन्यरहित मन से इस प्रकार की एकत्वभावना का अनुचिन्तन करना आवश्यक बताया गया है 'एगो मे सासओ अप्पा, नानसणसंजुभो / सेसा मे बाहिरा भावा, सम्बे संजोगलक्खागा / " -सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और उपलक्षण से सम्यक्-चारित्र से युक्त एकमात्र शाश्वत आत्मा ही मेरा है। प्रात्मा के सिवाय अन्य सब पदार्थ बाह्य हैं, वे संयोगमात्र से मिले हैं। 'सम्बतो मुडे-केवल सिर मुडा लेने से ही कोई मुण्डित या श्रमण नहीं कहला सकता, मनोजनित कषायों और इन्द्रियों को भी मूडना (वश में करना) अावश्यक है। इसीलिए यहाँ 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 219 / 2. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक 219 / (ख) प्राचारांग चूणि प्राचा० मूलपाठ पृ० 61 टिप्पण / (मुनि जम्बूविजयजी) 3. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 219 / (ख) प्राचारांम चूणि प्राचा० मूलपाठ पृष्ठ 61 टिप्पण 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 219 / 5. तुलना करें-नियमसार 102 / मातुर प्र० 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org