Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 142 आचारसंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कोई अच्छा कार्य या धर्माचरण करने की सूझती है / ' इसीलिए कहा है-'आनाए लमो गत्यि'प्राज्ञा का लाभ नहीं मिलता। __ आज्ञा के यहाँ दो अर्थ सूचित किये गये हैं-श्रुतज्ञान और तीर्थकर-वचन या उपदेश / भान या उपदेश का सार प्रास्रवों से विरति और संयम या आचार में प्रवृत्ति है। उसी से कर्मनिर्जरा या कर्ममुक्ति हो सकती है। प्राज्ञा का अर्थ वृत्तिकार ने बोधि या सम्यक्त्व भी किया है। 'वस्त त्यि पुरे पच्छा ...'.---इस पंक्ति में एक खास विषय का संकेत है। 'गस्थि' शब्द इसमें त्रैकालिक विषय से सम्बद्ध अव्यय है। इस वाक्य का एक अर्थ वृत्तिकार ने यों किया है-जिसकी भोगेच्छा के पूर्व संस्कार नष्ट हो चुके हैं, तब भला बीच में, वर्तमान काल में वह भोगेच्छा कहाँ से आ टपकेगी? 'भूलं नास्ति कुतः शाखा'–भोगेच्छा का मूल ही नहीं है, तब वह फलेगी कैसी? साधना के द्वारा भोगेच्छा की प्रात्यन्तिक एवं त्रैकालिक निवृत्ति हो जाती है, तब न अतीत का संस्कार रहता है, न भविष्य की वाच्छा/कल्पना, ऐसी स्थिति में तो उसका चिन्तन भी कैसे हो सकता है ? 3 इसका एक अन्य भावार्थ यह भी है-"जिसे पूर्वकाल में बोधि-लाभ नहीं हुआ, उसे भावी जन्म में कैसे होगा ? और अतीत एवं भविष्य में बोधि-लाभ का अभाव हो, वहाँ मध्य (बीच) के जन्म में बोधि-लाभ कैसे हो सकेगा ? "णिवकम्मदंसी' का तात्पर्य निष्कर्म को देखने वाला है। निष्कर्म के पाँच अर्थ इसी सूत्र में यत्र-तत्र मिलते हैं-(१) मोक्ष, (2) संवर, (3) कर्मरहित शुद्ध प्रात्मा, (4) अमृत और (5) शाश्वत / मोक्ष, अमृत और शाश्वत-ये तीनों प्रायः समानार्थक हैं। कर्मरहित आत्मा स्वयं अमृत रूप बन जाती है और संवर मोक्षप्राप्ति का एक अनन्य साधन है। जिसकी समस्त इन्द्रियों का प्रवाह विषयों या सांसारिक पदार्थों की ओर से हट कर मोक्ष या अमृत की ओर उन्मुख हो जाता है, वही निष्कर्मदर्शी होता है।। 'साहिस्सामो गाण....'- इन पदों का अर्थ भी समझ लेना आवश्यक है। वृत्तिकार तो इन शब्दों का इतना अर्थ करके छोड़ देते हैं--- "सत्यवतां यज्ज्ञान-योऽभिप्रायस्तवहं कथयिष्यामि / ' त्रिकालवर्ती सत्यशियों का जो ज्ञान/अभिप्राय है, उसे मैं कहंगा। परन्तु 'साधिध्यामः' का एक विशिष्ट अर्थ यह भी हो सकता है उस ज्ञान को साधना करूगा, अपने जीवन में रमाऊँगा, उतारूंगा, उसे कार्यान्वित करूंगा। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / // सम्यक्त्व: चतुर्थ अध्ययन समाप्त // 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / 3. आचा० शीला० टीका पत्रांक 176 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 175 / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 177 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org