Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 170 विवेचन—सब श्रमण-अात्मसाधक प्रत्यक्षज्ञानी नहीं होते और न ही सबका ज्ञान, तर्कशक्ति, बुद्धि, चिन्तनशक्ति, स्फुरणाशक्ति, स्मरणशक्ति, निर्णयशक्ति, निरीक्षण-परीक्षण शक्ति एक-जैसी होती है, साथ ही परिणामों-अध्यवसायों की धारा भी सबकी समान नहीं होती, न सदा-सर्वदा शुभ या अशुभ ही होती है। अतीन्द्रिय (अनधिगम्य) पदार्थों के विषय में तो वह 'तमेव सध्वं' का पालम्बन लेकर सम्यक (सत्य) का ग्रहण और निश्चय कर सकता है, किन्तु जो पदार्थ इन्द्रियप्रत्यक्ष हैं, या जो व्यवहार-प्रत्यक्ष हैं, उनके विषय में सम्यकअसम्यक् का निर्णय कैसे किया जाय? इसके सम्बन्ध में सूत्र 169 में पहले तो साधक के दीक्षा-काल और पश्चात्काल को लेकर सम्यक-असम्यक की विवेचना की है, फिर उसका निर्णय दिया है। जिसका अध्यवसाय शुद्ध है, जिसकी दृष्टि मध्यस्थ एवं निष्पक्ष है, जिसका हृदय शुद्ध व सत्यग्नाही है, वह व्यबहारनय से किसी भी वस्तु, व्यक्ति या व्यवहार के विषय को सम्यक् मान लेता है तो वह सम्यक् ही है और असम्यक् मान लेता है तो असम्यक् ही है, फिर चाहे प्रत्यक्षज्ञानियों की दृष्टि में वास्तव में वह सम्यक् हो या असम्यक् / / यहाँ 'उबहाए' शब्द का संस्कृत रूप होता है-उत्प्रेक्षया / उसका अर्थ शुद्ध अध्यवसाय या मध्यस्थष्टि, निष्पक्ष सत्यग्राही बुद्धि, शुद्ध सरल हृदय से पर्यालोचन करना है।' गति के 'दशा' या 'स्वर्ग-मोक्षादिगति' अर्थ के सिवाय वृत्तिकार ने और भी अर्थ सूचित किये हैं-ज्ञान-दर्शन की स्थिरता, सकल-लोकश्लाघ्यता. पदवी, श्रुतज्ञानाधारता, चारित्र में निष्कम्पता।' अहिंसा की व्यापक दृष्टि 170. तुमं सि णाम तं चेव जंहंतव्वं ति मणसि, तमं सि णाम तं चेव जं अज्जावेतवं ति मण्णसि, तुमंसि णाम तं चेव जं परितावेतव्वं ति मण्यसि, तुम सि णाम तं चेव ज परिघेतव्वं ति मण्णसि, एवं तं चेव जं उद्दवेतन्वं ति मणसि / अंजू चेयं पडिबुद्धजीवी / तम्हा ग हता, ण वि धातए। अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जे हंतव्वं णाभिपत्थए। 170. तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है। तू वही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 202 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 203 / 3. 'तं चेय' के बदले सच्चेष पाठ है। 4. 'जहंतवं णाभिपत्थए' की व्याख्या चूणि में यों है—'जमिति जम्हा कारणा, हंतव्वं मारेयन्वमिति, ण पडिसेहे, अभिमुहं पत्थए।"-जिस कारण से उसे मारना है, उसकी ओर (तदभिमुख) इच्छा भी न करो। 'न' प्रतिषेध अर्थ में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org