Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ माधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अणभिभूते पभूणिरालंबणताए, जै" मह अबहिमणे / पवावेण पवायं जागेज्जा तहसम्मइयाए' परवागरणेणं अण्णेसि वा सोच्चा। 173. णिसं णातिवत्त ज्ज मेहावी सुपडिलेहिय सम्वओ सम्बताए सम्ममेव समभिजाणिया। हं आरामं परिण्णाय अल्लीणगुत्तो परिस्वए। निठ्ठियही वीरे आगमेणं सदा परक्कमेज्जासि त्ति बेमि / 172. कुछ साधक अनाज्ञा (तीर्थकर की अनाज्ञा) में उद्यमी होते हैं और कुछ साधक अाज्ञा में अनुद्यमी होते हैं / ___ यह (अनाज्ञा में उद्यम और आज्ञा में अनुद्यम) तुम्हारे जीवन में न हो। यह (अनाज्ञा में अनुद्यम और आज्ञा में उद्यम) मोक्ष मार्ग-दर्शन-कुशल तीर्थकर का दर्शन (अभिमत) है। साधक उसी (तीर्थकर महावीर के दर्शन) में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उसी (तीकर्थर के दर्शनानुसार) मुक्ति में अपनी मुक्ति माने, (अथवा उसी में मुक्त मन से लीन हो जाए), सब कार्यों में उसे आगे करके प्रवृत्त हो, उसी के संज्ञानस्मरण में संलग्न रहे, उसी में चित्त को स्थिर कर दे, उसी का अनुसरण करे / जिसने परीषह-उपसर्गों-बाधाओं तथा घातिकर्मों को पराजित कर दिया है, उसी ने तन्व (सत्य) का साक्षात्कार किया है। जो (परीषहोपसर्गों या विघ्न-बाधाओं से) अभिभूत नहीं होता, वह निरालम्बनता (निराश्रयता-स्वावलम्बन) पाने में समर्थ होता है। जो महान् (मोक्षलक्षी लघुकर्मा) होता है (अन्य लोगों की भौतिक अथवा यौगिक विभूतियों व उपलब्धियों को देखकर) उसका मन (संयम से) बाहर नहीं होता। प्रवाद (सर्वज्ञ तीर्थंकरों के वचन) से प्रवाद (विभिन्न दार्शनिकों या तीथिकों के वाद) को जानना (परीक्षण करना) चाहिए। (अथवा) पूर्वजन्म की स्मृति से (या सहसा उत्पन्न मति-प्रतिभादि ज्ञान से), तीर्थंकर से प्रश्न का उत्तर पाकर (या व्याख्या सुनकर), या किसी अतिशय ज्ञानी या निर्मल श्रुत ज्ञानी प्राचार्यादि से सुन कर (प्रवाद के यथार्थ तन्व को जाना जा सकता है)। 173. मेधावी निर्देश (तीर्थकरादि के आदेश-उपदेश) का अतिक्रमण न करे / 1. 'जे महं अबहिमणे' का चूणि में अर्थ यों है-जे इति णिह से, ‘अहमेव सो जो अबहिमणो'- अर्थात् 'जे' निर्देश अर्थ में हैं / 'जो अबहिर्मना है, वह मैं हूँ।' वह मेरा ही अंगभूत है। 2. 'सहसम्मुइयाए' 'सह समुतियाए' ये दोनों पाठान्तर मिलते हैं। परन्तु 'सहसम्मइयाए' पाठ समुचित लगता है। 3. 'सुपडिलेहिय' का अर्थ चूर्णि में किया गया है—'सयं भगवता सुष्ठु पडिलेहितं विण्णातं तमेव सिद्धतं भागवतं / ' -स्वयं भगवान् ने सभ्यक प्रकार से विशेष रूप से (अपने केवलज्ञान के प्रकाश में) जाना है, वही भागवत सिद्धान्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org