Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 161 को क्षीण कर देना है। किन्तु 'इस भाव युद्ध' के योग्य सामग्री का प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर है।' यह कहकर उन्होंने इस अान्तरिक युद्ध के योग्य सामग्री की प्रेरणा दी जो यहाँ 'जहेत्य कुसलेहि ..' से लेकर णो अण्णेसी' तक अंकित है। . / आन्तरिक युद्ध के लिए दो शस्त्र बताये हैं--परिज्ञा और विवेक / परिज्ञा से वस्तुं का सर्वतोमुखी ज्ञान करना है और विवेक से उसके पृथक्करण की दृढ़ भावना करनी है। विवेक कई प्रकार का होता है-धन, धान्य, परिवार, शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि से पृथक्त्व/भिन्नता का चिन्तन करना, परिग्रह-विवेक आदि है / कर्म से प्रात्मा के पृथक्त्व की दृढ़ भावना करना कर्म-विवेक है और ममत्व प्रादि विभावों से प्रात्मा को पृथक् समझना-भाव-विवेक है।' 'स्वंसि वा छणसि वा' --यहाँ रूप शब्द समस्त इन्द्रिय-विषयों का तथा शरीर का, एवं 'क्षण' शब्द हिंसा के अतिरिक्त असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सूचक है, क्योंकि यहाँ दोनों शब्दों के आगे 'वा' शब्द आये हैं। 2 / 'वण्णादेसो-वर्ण के प्रासंगिक दो अर्थ होते हैं-यश और रूप / वृत्तिकार ने दोनों अर्थ किए हैं / रूप के सन्दर्भ में प्रस्तुत पंक्ति का अर्थ यों होता है-मुनि सौन्दर्य बढ़ाने का इच्छुक होकर कोई भी (लेप, औषधि-प्रयोग आदि) प्रवृत्ति न करे, अथवा मुनि रूप (चक्षुरिन्द्रिय विषय) का इच्छुक होकर (तदनुकूल) कोई भी प्रवृत्ति न करे / _ 'वसुम'-वसुमान् धनवान् को कहते हैं, मुनि के पास संयम ही धन है, इसलिए 'संयम का धनी' अर्थ यहाँ अभीष्ट है।४ . सम्यक्त्व-मुनिस्व की एकता 161. जं सम्म ति पासहा तं मोणं ति पासहा, जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा। ण इमं सक्कं सिढिलेहि अहिज्जमाणेहि गुणासाहि वंकसमायारेहि पमत्तेहि गारमावसंतेहिं। मुणी मोणं समादाय धुणे सरीरगं / पंतं लहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो। एस ओहंतरे मुणी तिणे मुत्ते विरते वियाहिते त्ति बेमि / // तइओ उद्देसओ समत्तो।। 1. आचा. शीला. टीका पत्रांक 191 / 2. आचा. शीला. टीका पत्रांक 191 / 3. आचा. शोला. टीका पत्रांक 192 / 4. आचा. शीला. टीका पत्रांक 193 / 5. 'अहिज्जमाणेहि' का एक विशेष अर्थ चूर्णिकार ने किया है--- 'अहवा अद्द अभिये, परीसहेहि अभिभूयमाणेण"।' अर्थात् - अद्द धातु अभिभव अर्थ में है। इसलिए यहाँ अर्थ होता है--परीषहों द्वारा पराजित हो जाने वाला। 6. 'गुणासाहि' के बदले 'गुणासाले हिं' पाठान्तर है / चूणि में इसका अर्थ यों किया गया है-'गुणसातेणं ति गुणे सावयति, गुणा वा सासा जं भणितं सुहा। गुण = पंचेन्द्रिय-विषय में जो सुख मानता है, अथवा विषय ही जिसके लिए साता (सुख) रूप हैं। 7. 'सरीरग' के बदले 'कम्मसरीरग' पाठ कई प्रतियों में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org