Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 178 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध 168. वही सत्य है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है, इसमें शंका के लिए कोई अवकाश नहीं है। विवेचन-जिस तत्त्व का अर्थ सरल होता है, वह सुखाधिगम कहलाता है। जिसका अर्थ दुर्बोध होता है, वह दुरधिगम तथा जो नहीं जाना जा सकता, वह अनधिगम तत्त्व होता है / साधारणतः दुरधिगम अर्थ के प्रति विचिकित्सा या शंका का भाव उत्पन्न होता है। यहाँ बताया है कि विचिकित्सा से जिसका चित्त डावाँडोल या कलुषित रहता है, वह प्राचार्यादि द्वारा समझाए जाने पर भी सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रादि के विषय में समाधान नहीं पाता।' विचिकित्सा ----ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों विषयों में हो सकती है / जैसे--"पागमोक्त ज्ञान सच्चा है या झूठा? इस ज्ञान को लेकर कहीं मैं धोखा तो नहीं खा जाऊँगा? मैं भव्य हूँ या नहीं ? ये जो नौ तत्त्व या षट् द्रव्य बताए हैं, क्या ये सत्य हैं ? अर्हन्त और सिद्ध कोई होते हैं या यों ही हमें डराने के लिए इनकी कल्पना की गई है ? इतने कठोर तप, संयम और महाब्रतरूप चारित्र का कुछ सुफल मिलेगा या यों ही ब्यर्थ का कष्ट सहना है ?" ये और इस प्रकार की शंकाएँ साधक के चित्त को अस्थिर, भ्रान्त, अस्वस्थ और असमाधियुक्त बना देती हैं / मोहनीय कर्म के उदय से ऐसी विचिकित्सा होती है / इसी को लेकर गीता में कहा है'संशयात्मा विनश्यति / विचिकित्सा से मन में खिन्नता पैदा होती है कि मैंने इतना जप, तप, संवर किया, संयम पाला, धर्माचरण किया, महावतों का पालन किया, फिर भी मुझे अभी तक केवलज्ञान क्यों नहीं हुआ ? मेरो छ हमस्थ अवस्था नष्ट क्यों नहीं हुई ? इस प्रकार की विचिकित्सा नहीं करनी चाहिए। इस खिन्नता को मिटाकर मन:समाधि प्राप्त करने का आलम्बन सूत्र है-'तमेव सच्च०' आदि / 'समाधि'—समाधि का अर्थ है—मन का समाधान / विषय की व्यापक दृष्टि से इसके चार अर्थ होते हैं (1) मन का समाधान / (2) शंका का निराकरण / (3) चित्त की एकाग्रता और (4) ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप सम्यग्भाव / यह भाव-समाधि कही जाती है। कृतिकार के अनुसार यहाँ समाधि का अर्थ है-ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त चित्त की स्वस्थता / विभिन्न सूत्रों के अनुसार समाधि के निम्न अर्थ भी मान्य हैं। (1) सम्यग् मोक्ष-मार्ग में स्थित होना। (2) राग-द्वेष-परित्याग रूप धर्मध्यान / (3) अच्छा स्वास्थ्य / 6 (4) चित की प्रसन्नता, स्वस्थता / (5) नीरोगता / 8 (6) योग / ' 1. याचा० शीला० टीका पत्रांक 201 / 2. उत्तराध्ययन सूत्र (2 / 40-33) में इस मनःस्थिति को प्रज्ञा-परीषह तथा अज्ञान-परीपह बताया है / प्राचा० शीला टीका पत्रांक 201 / सम० 20 / 5. सूत्रकृत् 112 / 2 / 6. आव० मल०२। 7. सम० 32 / व्यव० उ०१ 9. उत्तरा० 2 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org