Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उदेशक : सूत्र 142-150 141 विवेचन-इस सूत्र में संशय को परिज्ञान का कारण बताया है। इसका प्राशय यह है कि संशय यहाँ शंका के अर्थ में है। जब तक किसी पदार्थ के विषय में संशय-जिज्ञासा नहीं होती, तब तक उसके सम्बन्ध में ज्ञान के नये-नये उन्मेष खुलते नहीं है / जिज्ञासा-मूलक संशय मनुष्य के ज्ञान की अभिवृद्धि करने में बहुत बड़ा कारण है। भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गणधर गौतम स्वामी मन में जिज्ञासा-मूलक संशय उठते ही भगवान् के पास समाधान के लिए सविनय उपस्थित होते हैं। भगवती सूत्र में ऐसे जिज्ञासा मूलक छत्तीस हजार संशयों का समाधान अंकित है / इतनी बड़ी ज्ञानराशि संशयों के निमित्त से प्राप्त हो सकी। न संशयमनारुह्या नरो महानि पश्यति'--'संशय का आश्रय लिए बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन नहीं कर पाता'यह नीति सूत्र जिज्ञासा-प्रधान संशय का समर्थन करता है। पश्चिमी दर्शनकार दर्शन का प्रारम्भ भी आश्चर्य के प्रति जिज्ञासा से मानते हैं। संसार जन्म-मरण के चक्र का नाम है, वह सुखकर है या दुःखकर ? ऐसी संशयात्मक जिज्ञासा पैदा होगी तभी ज्ञपरिज्ञा से संसार की असारता का यथार्थ परिज्ञान (दर्शन) होगा, तभी प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उससे निवृत्ति होगी। जिसे संसार के प्रति संशयात्मक जिज्ञासा न होगी, उसे संसार की असारता का ज्ञान नहीं होगा, फलतः संसार से उसकी निवृत्ति नहीं होगी।' वितिया मंदस बालया' - इस पद में बताया है कि साधक की पहली मूढ़ता यह है कि उसने गुप्तरूप से मैथुन-सेवन किया, उस पर दूसरी मूढ़ता यह है कि वह उसे छिपाता है, गुरु प्रादि द्वारा पूछने पर बताता नहीं है। इस सम्बन्ध में नागार्जुनीय वाचना में अधिक स्पष्ट पाठ है-"जे खलु विसए सेवई, सेवित्ता वा गालोएई, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएग वा दोसेन पाविठ्ठयरेण बोसेग उव-लिपिज्जति ।"-अर्थात् जो साधक विषय (मैथुन) सेवन करता है, सेवन करके उसकी आलोचना गुरु आदि के समक्ष नहीं करता, दूसरे (ज्येष्ठ साधु) के पूछने पर छिता है, अथवा उस दूसरे को अपने उस दोष में या पापिष्ठकर दोष में लपेटता है," यह दोहरा दोष-सेवन है--एक अब्रह्मचर्य का, दूसरा असत्य का। इस सूत्र का संकेत है कि प्रमाद या अज्ञानवश भूल हो जाने पर उसे सरलतापूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसा करने से दोष की शुद्धि हो जाती है। यदि दोष को छिपाने का प्रयत्न किया जाता है तो वह दोष पर दोषदोहरा पाप करता है / आरम-कवाय-पद 150. आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी एतेसु चेव आरंभजीवी / एत्थ विबाले परिपच्चमाणे रमति पावेहि कम्मेहि असरणं सरणं ति मण्णमाणे / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 181 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 182 में उद्धृत / 3. इसके बदले चूमि में 'पतिप्पमाणे' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ होता है-(विषय-पिपासा से) संतप्त =छटपटाता हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org